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प्रशमरति प्रकरण का समालोचनात्मक अध्ययन
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((चतुर्थ - अध्याय)
जीव - बंध की प्रक्रिया एवं हेतु ___ जीव बंध प्रक्रिया का विवेचन करने के पूर्व यह बताना आवश्यक है कि जैन धर्म- दर्शन में इस प्रकार की मान्यता है कि यद्यपि जीव स्वभाव से शुद्ध-चेतन रुप है तो भी वह अनादि काल से कर्म रुपी मलों से उसी प्रकार युक्त है जिस प्रकार खान में पड़ा हुआ सोना किटकालिमादि से युक्त होता है। जीव को कर्मों से युक्त होने का नाम ही बंध है, क्योंकि कर्मबंध हो जाने पर जीव की स्वत्रंता उसी प्रकार नष्ट हो जाती है जिस प्रकार खूटे से बंधे हुए पशु की। जीव के बंध-स्वरुपादि का जैन धर्म-दर्शन में सूक्ष्म रुप से विस्तृत विवेचन हुआ है। बंध का स्वरुप :
प्रशमरति प्रकरण में जीव-बंध की प्रक्रिया एवं हेतु पर संक्षेप में प्रकाश डाला गया है। इसमें बंध के स्वरुप का कथन करते हुए बतलाया गया है कि कषाय युक्त जीव के द्वारा कर्मयोग्य पुद्गलों का ग्रहण करना बंध है 11 आगे ग्रन्थकार ने बंध स्वरुप की व्याख्या करते हुए ज्ञानावरण आदि कर्मों के नाश न होने को या उनकी परम्परा के बराबर चलते रहने को बंध कहा है, क्योंकि पूर्व बंधे हुए कर्म ही नवीन कर्मों के बंध के कारण होते हैं। इसीसे कर्मों की संतान को बंध कहा गया है ।
बंध-भेद :
बंथ के चार भेद हैं - (क) प्रकृति बंध (ख) स्थिति बंध (ग) अनुभव और (घ) प्रदेश बंध ।
प्रकृति बंध :
प्रशमरति प्रकरण में प्रकृति बंध के दो प्रकार बतलाये गये है- (1) मूल प्रकृति बंध (2) उत्तर प्रकृति बंध। ज्ञानावरण आदि अष्ट कर्म मूल प्रकृति बंध है। मूल कर्मों के भेद-प्रभेद उत्तर प्रकृति य हैं जिसके 122 भेद उल्लेखित हैं ।