________________
30
प्रशमरति प्रकरण का समालोचनात्मक अध्ययन चर जीव :
द्वीन्द्रिय आदि जंगम प्राणियों को चर कहा गया है। अचर जीव :
पृथ्वीकाय आदि स्थावर प्राणियों को अचर कहा गया है । (ड.) वेद (लिंग) की अपेक्षा जीव के भेद : --
जो वेदा जाता है, उसे वेद कहते हैं। इसका अपर नाम लिंग हैं। इसके तीन भेद हैं - स्त्री, पुरुष एवं नपुंसक । (च) शुद्धि - अशुद्धि की अपेक्षा जीव के भेद : __शुद्धि-अशुद्धि की अपेक्षा जीव के दो भेद हैं- (१) भव्य जीव (२) अभव्य जीव 43 । जिस जीव में मुक्त होने की शक्ति होती है, उसे भव्य जीव कहते हैं तथा जिसमें मुक्त होने की शक्ति नहीं होती है, उसे अभव्य जीव कहते हैं। ___ इसके सिवाय अवगाहना की अपेक्षा से जीव के अनन्त भेद हैं 44। साथ ही स्थिति 45 एवं ज्ञान-दर्शन 46 की अपेक्षा इसके अनन्त भेद होते हैं।
अजीव तत्व :
जीव के विपरीत अजीव होता है। इसमें चेतना के अभाव होने के कारण यह अचेतन होता है। इसे जड़ भी कहा जाता है। अजीव तत्व के पाँच भेद होते हैं 47 - पुद्गल, धर्म, अथर्म, आकाश और काल। इसका विस्तृत वर्णन द्रव्य विमर्श में आगे किया जायेगा।
पुण्य तत्व : __ जो पुद्गल कर्म शुभ है, वह पुण्य है 48 | सर्वज्ञ देव ने कर्मों की 42 शुभ प्रकृतियों को पुण्य माना है। यहाँ सर्वज्ञ का निर्देश करने से ग्रन्थकार का अभिप्राय यह है कि पुण्य-पदार्थ आगम का विषय है जिसका विस्तार से वर्णन जिन शासन में किया गया है 491
पाप तत्व :
जो पुद्गल कर्म अशुभ है, वह पाप है 50 । सर्वज्ञ देव ने कर्मों की 82 अशुभ प्रकृतियों को पाप स्वरुप माना है। इसका भी विस्तार पूर्वकवर्णन जिनशासन में किया गया है 51 ।
आसव तत्व :
आम्नव भी एक तत्व है। आसव का अर्थ द्वार होता है। काय, वचन और मन की क्रिया योग है और वही योग आस्रव है,52 क्योंकि योग के निमित्त से जीव में कर्मों का आगमन