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प्रथम अध्याय करने का निर्देश करके (148) बारह भावनाओं का वर्णन किया गया है। (149) इसके साथ ही अनित्य आदि का चिन्तन करते हुए उक्त बारह भेदों क्रमशः अनित्यत्व, अशरणत्व, एकत्व,अन्यत्व, अशुचित्व, संसार कमों के आस्त्रव की विधि, संवर-विधि, निर्जरा, लोक-विस्तार, स्वख्यात धर्म एवं बोधिदुर्लभता का कथन किया गया है (149-165) और इन्द्रिय गण आदि कषाय रुपी शत्रुओं को शान्त करने के लिए क्षमा आदि दसविथ धर्म पालन करने पर विशेष बल दिया गया है (166-167)37 | 9. धर्माधिकार ___ इस ग्रन्थ का नौवाँ अधिकार धर्माधिकार है। इसमें क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, संयम, त्याग, सत्य, तप, ब्रह्मचर्य एवं आकिंचन्य धर्म का क्रमशः कथन किया गया है 168-178
और बतलाया गया है कि दस धर्म के पालन करने से राग-द्वेष और मोहादि का थोड़े समय में उपशम हो जाता है तथा अहंकार छूट जाते हैं जिससे आत्मा के प्रबल शत्रु नष्ट हो जाते हैं और मन वैराग्य मार्ग में स्थिर हो जाता है (179-81) 38 । 10. धर्म कथाधिकार : __इस ग्रन्थ का दसवाँ अधिकार धर्मकथाधिकार है। उसमें बुद्धि को स्थिर करने के लिए आक्षेपणी,विक्षेपणी,संवेदनी और निवेदनी- चार प्रकार की धर्म कथा अपनाने एवं चोर, स्त्री, आत्म तथा देश-विकथा त्यागने का निर्देश किया गया है (182-183) और मन को विशुद्ध ध्यान में लगाने का निर्देश कर विशुद्ध ध्यान का कथन करते हुए शास्त्र अध्ययन करने पर बल दिया गया है (184-185) । आगे शास्त्र शब्द की व्युत्पत्ति बतलाकर दुःख निवारक शास्त्र का विस्तृत वर्णन कर जीवादि नौ तत्वों का चिन्तन करने का निर्देश किया गया है (186-189) 39। 11. जीवादि नव तत्वाधिकार : ___ इस ग्रन्थ का ग्यारहवां अधिकार जीवादि नव तत्वाधिकार है। इसमें जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आसव, संवर, निर्जरा, बंध एवं मोक्ष- इन नौ तत्वों का उल्लेख करके जीव के भेद-प्रभेद का वर्णन किया गया है (190-193.2)40 । 12. उपयोगाधिकार : ___ इसका बारहवाँ अधिकार उपयोगाधिकार है। इसमें जीव का लक्षण उपयोग बतलाते हुए उसके साकार-अनाकार दो प्रकार का कथन कर ज्ञानोपयोग एवं दर्शनोपयोग के क्रमशः आठ
और चार-भेदों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है (194-195) 41 | 13. भावाधिकार :
इस ग्रन्थ का तेरहवाँ अधिकार भावनाधिकार है। इसमें जीव के औदयिक, पारिणामिक,औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक- पाँच भावों का उल्लेख कर उनके