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प्रथम अध्याय
नहीं होने की अभिव्यक्ति है। 53 में इन्द्रिय के विषय में इष्ट या अनिष्ट भाव तथा 54 में बन्ध का कारण का उल्लेख है।
- आत्मा के प्रदेशों से कर्मपुद्गल किस प्रकार चिपटते हैं, इसका उल्लेख करते हुए 55 वें कारिका में बतलाया गया है कि राग-द्वेषरुप भावों का निमित्त पाकर आत्मा उसी प्रकार चिपट जाती है, जैसे हवा से उड़कर आनेवाले धूलकण चिकनाई का निमित्त पाकर शरीर से चिपट जाते हैं । आगे 56वें कारिका में राग-द्वेष, मोह, मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और योग को कर्मबंध का कारण माना गया है और राग-द्वेष को ही संसार परम्परा का जनक बतलाया गया है। 57 के साथ ही कारिका 58 से 80 तक में राग-द्वेष से उत्पन्न हुए संसारचक्र तोड़ने का उपाय बतलाया गया है 34 । 6. अष्टमदाधिकार:
इस ग्रन्थ का छठवाँ अधिकार अष्टमदाधिकार है। इसके 81 से 101 कारिकाओं में आठ मद का कथन किया गया है और बतलाया गया है कि जाति, कुल, रुप, बल, लाभ, बुद्धि, प्रिय एवं श्रुत आठ प्रकार के मद करना बेकार है, क्योंकि ये हृदय में केवल उन्माद उत्पन्न करने के कारण संसार-वृद्धिकारक हैं। इससे उन्मत्त हुआ मनुष्य इस लोक में पिशाच की तरह दुःखी रहता हुआ परभव में नियम से नीच जाति आदि को प्राप्त होता है। अतः सब मदों का मूल कारण मान कषाय को नाश करके मुनि को स्व-प्रशंसा और पर निन्दा नहीं करना चाहिए अन्यथा भव-भव में नीच गोत्रकर्म का बन्ध होते रहता है और कर्मोदय के कारण नीच जातियों में जन्म लेना पड़ता है। इस प्रकार उक्त रीति से नीच आदि जन्मों एवं कर्मफलों को जानकर महान् वैराग्य उत्पन्न होता है। इस प्रकार 102 से 105वें कारिका में वैराग्य के निमित्त का उल्लेखकर आगम का अभ्यास करना परम एवं श्रेयष्कर बतलाया गया है 35। 7. आचाराधिकार
इस ग्रन्थ का सातवाँ अधिकार आचाराधिकार है। इसके 106 वें कारिका में विषय को अनिष्टकारी बतलाया गया है क्योंकि ये विषय प्रारम्भ में उत्सव, मध्य में श्रृंगार और हास्य रस को उद्दीप्त एवं अन्त में वीभत्स, करुणा, लज्जा और भय आदि को करते हैं। 106 में सेवन करते समय विषय मन को सुखकर लगते तथा कृपांक वृक्ष के फल-भक्षण के समान 107 में सुस्वादु विषैले भोजन के समान अन्त में दुःखदायी बताया गया है। 108 में बताया गया है कि विषैले भोजन करने से तो एक ही बार मृत्यु होती है परन्तु विषयों के सेवन से भव-भव में कष्ट उठाना पड़ता है। 109 में अविवेकी मनुष्य मरण को नियत-अनियत . जानकर विषयों में आसक्त बताये गये हैं। इस प्रकार 112 तक की कारिकाओं में मन के प्रिय लगने वाले उक्त विषयों के भावी परिणाम को जानकर उससे विरक्त होकर आचार का अनुशीलन कर आत्म-रक्षा करने का निर्देश किया गया है। 113 वें कारिका में आचार के