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प्रथम अध्याय शुद्ध शैली, संस्कृत भाषा पर उनके एकाधिकार और प्रभुत्व की साक्षी है। जैनागम में प्रसिद्ध ज्ञान, ज्ञेय, आचार, भूगोल, खगोल आदि से सम्बद्ध बातों का संक्षेप में जो संग्रह इन्होंने सभाष्य-तत्वार्थाधिगमसूत्र में किया है, वह इनके वाचक वंश में होने का और वाचक पद की यथार्थता का प्रमाण है। उनके तत्वार्थभाष्य की प्रारम्भिक कारिकाओं और दूसरी गद्य कृतियों से स्पष्ट है कि वे गद्य की तरह पद्य के भी प्रांजल लेखक हैं। इनके सभाष्य सूत्रों के सूक्ष्म अवलोकन से जैनागम सम्बन्धी इनके सर्वग्राही अध्ययन के अतिरिक्त वैशेषिक, न्याय, योग
और बौद्ध आदि दार्शनिक साहित्य की प्रतीति होती है। तत्वार्थभाष्य (1-5, 2-15) में उद्धृत व्याकरण के सूत्र पाणिनीय व्याकरण विषयक अध्ययन के परिचायक हैं।
दिगम्बर परम्परा में इनको 'श्रुत केवलि देशीय' कहा गया है। ' तत्वार्थसूत्र से भी उनके ग्यारह अंग विषयक श्रुतज्ञान की प्रतीति होती है। इन्होंने विरासत में प्राप्त अर्हतश्रुत के सभी पदार्थों का संग्रह तत्वार्थ सूत्र में किया है, एक भी महत्वपूर्ण बात इन्होंने बिना कथन किए नहीं छोड़ी। इसी कारण आचार्य हेमचन्द्र संग्रहकार के रुप में उमास्वाति को सर्वोत्कृष्ट आंकते हैं। इनकी इन्हीं योग्यताओं से आकृष्ट होकर श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों तरह के विद्वान् इनके तत्वार्थसूत्र की व्याख्या करने के लिए प्रेरित हुए हैं। ___ उपर्युक्त विवेचनों के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि आचार्य उमास्वाति जैनदर्शन तथा तत्कालीन समस्त भारतीय धार्मिक-दार्शनिक साहित्य के कुशल मर्मज्ञ हैं।
सम्प्रदाय :
उमास्वाति को दोनों जैन परम्पराएँ समान श्रद्धा की दृष्टि से मानती हैं। लेकिन ये किस परम्परा के हैं, इस विषय में मतभेद है। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनो परम्पराएँ इन्हें अपने-अपने सम्प्रदाय के होने का दावा करती हैं। पंडित सुखलाल संघवी ने तत्वार्थसूत्र की भूमिका में इस विषय पर विस्तृत चर्चा की है। उमास्वाति दिगम्बर परम्परा के नहीं हैं,इसे सिद्ध करने के लिए इन्होंने निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए है ? __1. प्रशस्ति में उल्लिखित उच्च नागर शाखा या नागर शाखा का दिगम्बर सम्प्रदाय में होने का एक भी प्रमाण नहीं मिलता। ____ 2. काल किसी के मत में वास्तविक द्रव्य है,ऐसे सूत्र (5-38) और उसके भाष्य का वर्णन दिगम्बर मत (5-39) के विरुद्ध है। केवली में (9-11) ग्यारह परीषह होने का सूत्र और भाष्यगत सीथी मान्यता एवम् भाष्यगत वस्त्रपात्र आदि का स्पष्ट उल्लेख भी दिगम्बर परम्परा के विरुद्ध है (95, 9-7, 9.26)। सिद्धों में लिंग द्वार और तार्थोद्वार का भाष्यगत वक्तव्य दिगम्बर परम्परा के विरुद्ध है।
3. भाष्य में केवलज्ञान के पश्चात् केवली के दूसरा उपयोग मानने न मानने का जो मन्तव्य भेद (1-31) है, वह दिगम्बर ग्रन्थों में दिखाई नहीं देता।