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प्रशमरति प्रकरण का समालोचनात्मक अध्ययन
110 पदार्थो को समान रुप से ग्रहण करता है। जैसे पागल मनुष्य कभी स्त्री को स्त्री और माता को माता जानता है। परन्तु, उसके वैसे जानने में स्थिरता नहीं रहती, इसलिए पागल मनुष्य का ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं है। मनः पर्यय ज्ञान छठवें गुणस्थान से लेकर बारहवें गुण स्थान तक के मुनियों के ही होता है और केवल ज्ञान अरहन्त, सिद्ध अवस्था में ही होता है। इसलिए ये दोनों सदा सम्यक ही होते हैं, उनमें मिथ्यापना का अभाव रहता है। इस प्रकार सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के कारण ज्ञान सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान होता है28। सम्यग्वारित्र :
सम्यग्चारित्र मोक्ष का हेतु है। इसके बिना मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है। सम्यग्चारित्र का अर्थ-यथार्थ चरित्र है। प्रशमरति प्रकरण में इसके स्वरुप का कथन करते हुए बतलाया गया है कि सम्यग्दर्शन एवम् ज्ञान-पूर्वक आचरण करना, सम्यचारित्र है।
सम्यग्चारित्र के पाँच भेद है29 - सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म साम्पराय और यथाख्यात।
सामायिक चारित्र:
सामायिक चरित्र सम्यग्चारित्र का प्रथम भेद है। प्रशमरति प्रकरण में इसका स्वरुप का कथन किया गया है औ बतलाया गया है कि सदा के लिए या किसी निश्चित काल तक के लिए अभेदरुप से समस्त पाप कार्यों का त्याग करना सामायिक नामक चरित्र है। छेदोपस्थापना चारित्र :
सम्यम्चारित्र का दूसरा भेद छेदोपस्थापना चारित्र है। छेदोपस्थापना का अर्थ है- छेद अर्थात् भेद पूर्वक पाप कार्य का त्याग करना या दोष लगने पर पुनः प्रायश्चित विधि से उसे शुद्ध करना। प्रशमरति प्रकरण में इसकी परिभाषा दी गयी है। तद्नुसार जिसमें हिंसा आदि के भेद पूर्वक पाप कार्यों का त्याग होता है, वह छेदोपस्थापना चारित्र है। अथवा व्रत में बाधा आने पर पुनः उसकी शुद्धि करने को छेदोपस्थापना चारित्र कहते हैं। परिहार विशुद्वि चारित्र :
सम्यग्चारित्र का तीसरा भेद परिहार विशुद्धि चारित्र है। इसके स्वरुप का कथन कर बतलाया गया है कि जिसमें प्राणिघात के एक विशिष्ट प्रकार के त्याग से शुद्धि होती है या परिणामों में निर्मलता आती है, वह परिहार विशुद्धि चारित्र है। सूक्ष्म साम्यराय चारित्र : - सम्यग्चारित्र का चौथा भेद सूक्ष्म साम्पराय चारित्र है। इसके स्वरुप का कथन किया गया है और बतलाया गया है कि समस्त कषार्यों के उपशान्त अथवा क्षीण हो जाने पर जिस मुनि