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________________ 107 जानता है, वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है। पंचम अध्याय सम्यग्ज्ञान के पाँच भेद हैं15 - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवल ज्ञान । उपरोक्त पाँचो ज्ञान दो भागों में वर्गीकृत किया गया है - प्रत्यक्ष और परोक्ष 16 1 परोक्ष ज्ञान : मति श्रुत दोनों ज्ञान परोक्ष हैं, क्योंकि ये ज्ञान इन्द्रियाँ और मन की सहायता से उत्पन्न होते हैं। जैसे धूप से अग्नि का ज्ञान करने में धूप सहायक होता है, वैसे ही ये ज्ञान भी इन्द्रिय और मन की सहायता से पदार्थों को जानते है । अतः जो ज्ञान इन्द्रिय- आवरण और अनिन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है, वह ज्ञान परोक्ष ज्ञान कहलाता है 17 । इस प्रकार परोक्षज्ञान के दो भेद हैं 18 - (क) मति और (ख) श्रुत परोक्षज्ञान । मति परोक्षज्ञान : . परोक्षज्ञान का पहला भेद मतिज्ञान है। मतिज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से उत्पन्न होता है। प्रशमरति प्रकरण में गति के स्वरुप का कथन करते हुए बतलाया गया है कि जो इन्द्रिय और मन की सहायता से उत्पन्न होता है, उस ज्ञान को मति या अभिनिबोध परोक्ष ज्ञान कहते है । - मतिज्ञान के मुख्यतः चार भेद हैं- अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा । वे चारों ज्ञान स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु श्रोत पंचेन्द्रिय और मन से उत्पन्न होने के कारण चौबीस प्रकार के हैं । बहु, बहुविधक, क्षिप्र, अनिःसृत, अनुत्त और अध्रुव तथा इनसे विपरीत एक, एकविध, अक्षिप्र, निःसृत, उक्त और ध्रुव इन बारह प्रकार के पदार्थों के अवग्रह आदि चार ज्ञान होते हैं। अतः मतिज्ञान 46×12 = 288 प्रकार का है तथा अवग्रह के दो भेद है। (1) अर्थावग्रह और (2) व्यंजनावग्रह | व्यंजनावग्रह चक्षु और मन के सिवाय शेष चार इन्द्रियों एवं बारह ही प्रकार के पदार्थों को होता है । इसलिए इसके 12x4 = 48 भेद हैं। इस प्रकार पूर्वोक्त 288 भेदों में 48 भेदों के मिलाने से मतिज्ञान 336 प्रकार का होता है" । श्रुतज्ञान : परोक्षज्ञान का दूसरा भेद श्रुत ज्ञान है। श्रुतज्ञान का अर्थ होता है- सुनकर ज्ञान प्राप्त करना । प्रशमरति प्रकरण के टीकाकार ने बतलाया है कि मतिज्ञान की उत्पत्ति मति-ज्ञान पूर्वक होती है। अर्थात् मतिज्ञान के बाद ही श्रुतज्ञान की उत्पत्ति मति - ज्ञान पूर्वक होती है। अर्थात् मतिज्ञान के बाद ही श्रुतज्ञान होता है। इस ज्ञान में भी इन्द्रिय और मन का अवलम्बन रहता है, इसलिए यह परोक्ष प्रमाण कहलाता है । श्रुतज्ञान के मुख्यतः दो भेद हैं-अंग बाह्य और अंग प्रविष्ट । इनमें अंग बाह्य के अनेक भेद हैं और अंग प्रविष्ट के आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति,
SR No.022360
Book TitlePrashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManjubala
PublisherPrakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan
Publication Year1997
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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