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________________ १४ अयोगव्यवच्छेदः पापोंसे छूटना, काशीमें मरणेसें मोक्षका मानना, अरूपी अशरीरी, सर्वव्यापक, मुखादि अवयव रहित, ऐसें परमेश्वरकों वेदादि शास्त्रोंका उपदेष्टा मानना, अग्निमें धृतादि द्रव्योंके हवन करनेसें पवन सुधरता है, तिससें मेघ शुद्ध वर्षता है, तिसमें मनुष्य निरोग्य रहते हैं, यह अग्निके हवन करनेसें महान उपकार है ऐसा मानना, वेदोंमें ईश्वरने मांस खाने की आज्ञा दीनी है, वेदमंत्र पवित्रित मांस खानेमें दूषण नही, निरंतर मांसमें हवन करना, केवल क्रियासेंही मोक्ष मानना, केवल ज्ञानसेंही मोक्ष मानना, रागी, द्वेषी, अज्ञानी, कामीकों परमेश्वर कथन करना, सारंभी, सपरिग्रहीकों साधु मानना, पशुयोंकों मारना चाहिये, नही तो येह बहुत हो गए तो, मनुष्योंकी हानिकरेंगे, स्त्रीकों इग्यारह खसम करने, ऐसे नियोगकी ईश्वरकी आज्ञा है, इत्यादि कुमार्गका उपदेश करो! कर्म के उदयोकों अनिवार्य होनेसें (नु) अव्यय है, खेदार्थमें तिससें बडा खेद है (नाम) कोमलामंत्रणमें है वा प्रसिद्धार्थमें है तब तो ऐसा अर्थ हुवा कि, बडाही खेद है कि ऐसे असूया करके अंध पुरुष (अन्यानपि) अन्य जगत्वासी मनुष्योंकोंभी (प्रलम्भं) कुमार्गके लाभ-प्राप्तिकों (लम्भयन्ति) प्राप्ति कराते हैं, अर्थात् आप तो कुमार्गकी देशना करनेसें नाशकों प्राप्त हुए हैं, परं अन्य जनोंकाभी कुमार्गमें प्रव"के नाश करते हैं। इतना करकेभी संतोषित नही होते हैं, बलकि वे, असूया इर्षा करके अंधे (सुमार्गगं) सुमार्ग गत पुरुषकों, (तद्विदं) सुमार्गके जानकारकों और (आदिशन्तं) सुमार्गके उपदेशककों (अवमन्वते) अपमान करते हैं। जैसें यह ईश्वरकों जगत्कर्ता नही मानते हैं, वेदोंके निंदक हैं, वेद, बाह्य हैं, नास्तिक हैं, जगत्कों प्रवाहसें अनादि मानते हैं, कर्मका फलप्रदाता निमित्तकों मानते हैं, परंतु ईश्वरको फलप्रदाता नही मानते हैं, आत्माकों देहमात्र व्यापक मानते हैं, षट्कायको जीव मानते हैं, इत्यादि अनेक तरेसें अपना मत चलाते हैं; इस वास्ते अहो लोको !
SR No.022359
Book TitleAyogvyavacched Dwatrinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaypradyumnasuri
PublisherShrutgyan Prasarak Sabha
Publication Year
Total Pages50
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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