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________________ तत्त्वनिर्णय प्रासादे (आश्रित:) आश्रित किया है- माना है ? कैसा है वो अन्य? (स्वमांसदानेन वृथा कृपालुः) अपना मांस देने करके जो वृथा कृपालु है; आत्मा का घात, और परको अपना मांस देके तृप्त करना, यह वृथाही कृपालुका लक्षण है, क्योंकि, ऐसी कृपालुतासें परजीवका कल्याण नही होता है, असद्धर्मोपदेशरूप होनेसें। बुद्ध का यह कहना है कि, मेरे सन्मुख कोइ व्याघ्र सिंहादिक भूखसें मरता होवे तो, मैं अपना मांस देके तिसकी क्षुधा निवारण करूं, मैं ऐसा दयालु हूं । और क्षेमेंद्रकविविरचित बोधि सत्वअवदान कल्पलतामें बोधि सत्वने पूर्व जन्मांतरमें अपना शरीर सिंहको भक्षण करवाया था ऐसा कथन है, इस वास्ते बुद्ध अपने आपकों स्वमांसके देनेसें कृपालु मानता था, परंतु यह कृपालुता व्यर्थ है ॥ ६ ॥ . अथाग्रे आचार्य असत्पक्षपातीयोंका स्वरूप कहते हैं । स्वयं कुमार्ग लपतां नु नाम प्रलम्भमन्यानपि लम्भयन्ति । सुमार्गगं तद्विदमादिशन्त म सूयान्धा अवमन्वते च ॥ ७ ॥ व्याख्या- (असूबयांधाः) ईर्षा करको जे पुरुष अंधे है वे (स्वयं) आपतो (कुमार्ग) कुमार्गको (लपतां) कथन करो! प्रबल मिथ्यात्व मोहके उदय होनेसें जैसें मद्यप पुरुष मदके नशेमें, जो चाहो सो असमंजस वनच बोलो तैसेंही मिथ्यात्वरूप धतूरेके नशेसें ईर्षांध पुरुष कुमार्ग, अर्थात् अश्वमेघ, गोमेघ, नरमेघ, अजामेघ, अंत्येष्ठि, अनुस्तरणि, मधुपर्क, मांस आदिसें श्राद्ध करना, ब्राह्मणोंके वास्ते शिकार मारके लाना, परमेश्वरकों जीव वध करके बलिका देना, मोक्ष प्राप्तकों फेर जगत्में जन्म लेना, तीर्थों में स्नान करनेसें सर्व
SR No.022359
Book TitleAyogvyavacched Dwatrinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaypradyumnasuri
PublisherShrutgyan Prasarak Sabha
Publication Year
Total Pages50
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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