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पंचमं वेदनीयं स्यात् - षळं नामकर्मभाक्। सप्तमं गोत्रकर्मेति त्वष्टमं चान्तरायकम्॥
कर्मग्रन्थ में कर्म का तात्विक एवं मनोवैज्ञानिक लक्षण | प्रस्तुत करते हुए कहा गया है - ___ कीरइ जीएण हेउहिं जेणं तु भण्ण एकम्म'
___ अर्थात् जीव की शारीरिक, मानसिक तथा वाचनिक शुभाशुभ क्रिया या मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कषाय आदि योगों के कारण राग-द्वेषात्मक प्रवृत्ति से चुम्बक की तरह आत्मा जो कुछ | करता है वह कर्म कहलाता है। यह बात प्रवचनसार की इस गाथा से सुस्पष्ट है - परिणमदि जदा अप्पा सुहम्मि असुहम्मि रागदोसजुदो। तं पविसदि कम्मरयं गाणावरणादि भावेहिं॥
कर्म के मूलत: आठ प्रकार हैं१. ज्ञानावरणीय कर्म ५. वेदनीय कर्म २. दर्शनावरणीय कर्म ६. नामकर्म ३. मोहनीय कर्म ७. गोत्रकर्म
४. अन्तरायकर्म ८. आयुष्य कर्म १. कर्मग्रन्थप्र.भा.गा.१ B8888888888888888888888888888888
@ । अट्ठाईस ।
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