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जैनाचार्यों ने लोकदृष्टि का समन्वय करने के लिए प्रत्यक्ष | के दो भेद किए हैं - सांव्यवहारिक (इन्द्रिय प्रत्यक्ष) २. पारमार्थिक
(आत्म) प्रत्यक्ष। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के चार भेद हैं - अवग्रह, 8 ईहा, अवाय और धारणा।
इन्द्रिय, मन अथवा प्रमाणान्तर की सहायता बिना आत्मा को पदार्थ का जो साक्षात् ज्ञान होता है, उसे आत्मप्रत्यक्ष ॐ पारमार्थिक प्रत्यक्ष या 'नो इन्द्रिय प्रत्यक्षकहते हैं। इन्द्रिय मन
की सहायता से होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान सांव्यवहारिक या इन्द्रिय प्रत्यक्ष कहलाता है। त्रिकालवर्ती प्रमेय मात्र केवलज्ञान का | विषय बनता है। अत: उसे सकल प्रत्यक्ष अमुक भाग जो अवधि
और मन: पर्याय ज्ञान का विषय बनता है, उसे विकल प्रत्यक्ष कहते हैं। प्रत्यक्ष का प्रतिभास होने पर प्रमाणान्तर की आवश्यकता नहीं रहती है। प्रत्यक्ष वैशद्य युक्त होता है। अत: प्रमाण मीमांसा में कहा भी है -
विशदः प्रत्यक्षम्। अवधि, मन: पर्याय तथा केवलज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण स्वरूप हैं। परोक्ष प्रमाण
जिसमें वैशद्य अर्थात् स्पष्टता का अभाव होता है वह परोक्ष प्रमाण कहलाता है - 'अस्पष्टं परोक्षम्' । प्रत्यक्ष को किसी
अन्य प्रमाण की सहायता की आवश्यकता नहीं होती है। अत: वह BA88888888888888888888888888888888
@ । इक्कीस ।
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