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प्रस्तावना
- आचार्य शम्भु दयाल पाण्डेय
भारतीय दर्शनों में जैनदर्शन सिद्धान्त का एक विशिष्ट महत्त्व है। जैन संस्कृति में दो प्रकार के मान्यता प्राप्त पवित्र ग्रंथ हैं
चतुर्दश पूर्व और ग्यारह अंग । इनका अध्ययन-अध्यापनएक विशिष्ट रीति से प्रारम्भिक क्षणों से वर्तमान तक चल रहा था कि यह क्रम शनै: शनै: कुछ विलुप्त हो गया । ग्यारह अंगों के नाम है आचाराङ्ग सूत्रकृताङ्ग, स्थानाङ्ग समवायाङ्ग भगवतीसूत्र ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशाङ्ग, अन्तकृतदशा अनुत्तरौपपातिकदशा, प्रश्न व्याकरण और विपाक सूत्र ।
इसके अतिरक बारह उपांग' दस प्रकीर्ण छ: छेदसूत्र नांदी अनुयोगद्वार तथा चार मूल सूत्र (उत्तराध्ययन आवश्यक सूत्र दशवैकालिक सूत्र तथा पिण्डनिर्युक्ति भी प्राप्तव्य हैं।)
१. औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाभिराम, प्रज्ञापना जम्बुद्वीप-प्रज्ञप्ति, चन्द्र प्रज्ञप्ति, सूर्य प्रज्ञप्ति निरयावली, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका तथा वृष्णिदशा ।
२. चतुः शरण संस्तार, आतुर प्रत्याख्यान, भक्तापरिज्ञा, तन्दुलवैयाली, चण्डाबीज, देवेन्द्रस्तव, गणिबीज, महाप्रत्याख्यान, , वीरस्तव ।
३. निशीथ, महानिशीथ, व्यवहार, दशश्रुतस्कन्ध, वृहत्कल्प पंचकल्प।
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