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किसी तरह पर भी क्षेपक-बादको मिलाई हुई—नहीं हो सकती, क्योंकि ग्रन्थकारने अगले ही पद्यमें उसके उद्धरणको स्वयं स्वीकार तथा घोषित किया है और वह पद्य इस प्रकार है:
उक्तगाथार्थसूत्रेऽपि प्रशमादिचतुष्टयम् ।
नातिरिक्तं यतोऽस्त्यत्र लक्षणस्योपलक्षणम् ॥ ४६७ ॥ इस पद्यपरसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि ग्रन्थकारने उक्त गाथाको उधृत करके उसे अपने ग्रन्थका एक अंग बनाया है और उसके विषयका स्पष्टीकरण करने अथवा अपने कथनके साथ उसके कथनका सामंजस्य स्थापित करनेका यहींसे उपक्रम किया है-अगले कई पयोंमें इसी विषयकी चर्चा कीगई है-फिर उक्त गाथाको क्षेपक कैसे कहा जा सकता है ? अस्तु यह तो हुआ अमृतचन्द्राचार्यके द्वारा प्रकृत ग्रन्थके न रचे जाने आदि विषयक सामान्य विचार, अब ग्रन्थके वास्तविक कर्ता
और उसके निर्माणसमयसम्बन्धी विशेष विचारको लीजिये। __ऊपर यह जाहिर किया जा चुका है कि 'लाटीसंहिता' नामका भी एक ग्रंथ है । यह संस्कृत भाषामें श्रावकाचार-विषयका एक सप्तसर्गात्मक ग्रन्थ है और इसकी पद्यसंख्या १६०० के करीब है । इस ग्रन्थके साथ जब पंचाध्यायीकी तुलनात्मक दृष्टिसे आन्तरिक जाँच की जाती है तो यह मालूम होता है कि ये दोनों ग्रन्थ एक ही विद्वान्की रचना हैं । दोनोंकी कथनशैली, लेखन-प्रणाली अथवा रचना-पद्धति एक जैसी है; ऊहापोहका ढंग, पदविन्यास और साहित्य भी दोनोंका समान है; पंचाध्यायीमें जिस प्रकार किंच, ननु, अथ, अपि, अर्थात्, अयमर्थः, अयंभावः, एवं, नैवं, मैवं, नोह्यं, न चाशङ्कयं, चेत्, नो चेत्, यतः, ततः, अत्र, तत्र, तयथा, इत्यादि शब्दोंके प्रचुर प्रयोगके साथ विषयका प्रतिपादन किया गया है, उसी तरह वह लाटीसंहितामें भी पाया जाता है । संक्षेपमें, दोनों ग्रन्थ एक ही लेखनी, एक ही टाइप और एक ही टकसालके जान पड़ते हैं। इसके सिवाय, दोनों ग्रन्थोंमें सैकड़ों पद्य भी प्रायः एक ही पाये जाते हैं और उनका खुलासा इस प्रकार है: