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ग्रन्थकर्त्ता का परिचय |
इस ग्रन्थके रचयिता के विषयमें इस ग्रन्थसे और इसकी प्रशस्तिसे बहुत कुछ परिचय मिल जाता है ।
अनुमान है कि पंचाध्यायी भी इन्हींकी बनाई हुई है। इसके विषय में प्रसिद्ध साहित्यसेवी पं० जुगल किशोरजी मुख्तार ने एक लेख 'वीर' नामक पत्रके वर्ष ३ अंक १२-१३ में प्रकाशित कराया है, उसको हम यहाँ उद्धृत कर देना आवश्यक समझते हैं ।
" कवि राजमल्ल और पंचाध्यायी ।
जैन ग्रन्थोंमें ' पञ्चाध्यायी ? नामका एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है । यह महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ, आजसे २० वर्ष पहले प्रायः अप्रसिद्ध था - कोल्हापुर, अजमेर आदिके कुछ थोड़ेसे ही भंडारों में पाया जाता था और बहुत ही कम विद्वान् इससे परिचित थे । शक संवत् १८२८ ( वि० सं० १९६३) में गांधी नाथारंगजीने इसे कोल्हापुरके 'जैनेन्द्र मुद्रणालय में छपाकर प्रकाशित किया; तभी से यह ग्रन्थ विद्वानोंके विशेष परिचय में आया, विद्वद्वर्य पं० गोपालदासजीने इसे अपने शिष्योंको पढ़ाया, पं० मक्खनलालजीने इसपर भाषाटीका लिखी, और इस तरह पर समाजमें इसका प्रचार उत्तरोत्तर बढ़ा । अपने नाम परसे - ग्रन्थके आदिमें मङ्गलपद्यमें प्रयुक्त हुए 'पंचाध्यायावयवं ' इस विशेषण पद परसेभी - यह ग्रन्थ पांच अध्यायोंका समुदाय जान पड़ता है । परन्तु इसवक्त जितना उपलब्ध है उसे अधिक से अधिक डेढ़ अध्यायके करीब कह सकते हैं, और यह भी हो सकता है कि वह एक अध्याय भी पूरा न हो । क्योंकि ग्रन्थमें अध्यायविभागको लिये हुए कोई सन्धि नहीं है और न पांचों अध्यायोंके नामोंको ही कहीं पर सूचित किया है । शुरूमें ' द्रव्यसामान्यनिरूपण '
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