SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 11
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१०) जो पंचाध्यायीमें भी नं० ७७४ (७७८) पर उद्धृत हैं। मालूम होता है ये दोनों पय पंचाध्यायीकी प्रतियोंमें छूट गये हैं। अन्यथा प्रकरणको देखते हुए इनका भी साथमें उद्धृत किया जाना उचित था। इसी तरह पंचाध्यायीमें भी 'यथा प्रज्वलितो वह्निः' और 'यतः सिद्धं प्रमाणादै ये दो पद्य (नं० ५२८, ५५७), इन पद्योंके सिलसिलेमें, बढ़े हुए हैं। सम्भव है कि वे लाटीसंहिताकी प्रतियोंमें छूट गये हों। इस तरह पर ४३८ पद्य दोनों ग्रन्थोंमें समान हैं-अथवा यों कहना चाहिये कि लाटीसंहिताका एक चौथाईसे भी अधिक भाग पंचाध्यायीके साथ एक-वाक्यता रखता है । ये सब पद्य दूसरे पद्योंके मध्यमें जिस स्थितिको लिये हुए हैं उस परसे यह नहीं कहा जा सकता कि वे 'क्षेपका हैं या एक ग्रन्थकारने दूसरे ग्रन्थकारकी कृति परसे उन्हें चुराकर या उठाकर और अपने बनाकर रक्खा है । लाटीसंहिताके कर्ताने तो अपनी रचनाको 'अनुच्छिष्ट ' और 'नवीन' सूचित भी किया है और उससे यह पाया जाता है कि लाटीसंहितामें थोडेसे 'उक्तं च ' पद्योंको छोडकर शेष पद्य किसी दूसरे ग्रन्थकारकी कृति परसे नकल नहीं किये गये हैं। ऐसी हालतमें पद्योंकी यह समानता भी दोनों ग्रन्थोंके एक-कर्तृत्वको घोषित करती है । साथ ही लाटीसंहिताके निर्माणकी प्रथमताको भी कुछ बतलाती है। ___ इन समान पयोंमेंसे कोई कोई पद्य कहीं पर कुछ पाठभेदको भी लिये हुए हैं और उससे अधिकांशमें लेखकोंकी लीलाका अनुभव होनेके साथ १ यथाःसत्यं धर्मरसायनो यदि तदा मां शिक्षयोपक्रमात् । सारोद्धारमिवाप्यनुग्रहतया स्वल्पाक्षरं सारवत् ॥ आर्षे चापि मदुक्तिभिः स्फुटमनुच्छिष्टं 'नवीनं ' महनिर्माणं परिधेहि संघ नृपतिर्भूयोप्यवादीदिति ॥ ७९ ॥ श्रुत्वेत्यादिवचः शतं मदुरुचिनिर्दिष्टनामा कविः । नेतुं यावदमोघतामभिमतं सोपक्रामयोद्यतः ।।
SR No.022354
Book TitleLati Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikchandra Digambar Jain Granthmala Samiti
PublisherManikchandra Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy