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________________ लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन जहाँ जीव बिना कुछ किए प्राकृतिक पदार्थों के आश्रय पर उत्तम भोग भोगते हुए सुखपूर्वक जीवन यापन करते हैं। अन्तर्वीप में उत्पन्न होने वाले मनुष्य अन्तर्वीप कहे गए हैं", यथा- १. एकोस्क २. आभासिक ३. वैषाणिक ४. नांगोलिक ५. हयकर्ण ६. गजकर्ण ७. गोकर्ण ८. शष्कुलिकर्ण ६. आदर्शमुख १०. मेण्ढमुख ११.अयोमुख १२. गोमुख १३. अश्वमुख १४. हस्तिमुख १५. सिंहमुख १६. व्याघ्रमुख १७. अश्वकर्ण १८. सिंहकर्ण १६. अकर्ण २०. कर्णप्रावरण २१. उल्कामुख २२. मेघमुख २३. विद्युन्मुख २४. विद्युद्दन्त २५. घनदन्त २६. लष्टदन्त २७. गूढ़दन्त २८. शुद्धदन्त। जम्बूद्वीप में भरत और हैमवत क्षेत्र की सीमा का विभाजन करने वाला हिमवान नामक पर्वत है। इस हिमवान पर्वत की चार दाढाओं पर एकोरुक आदि २८ अन्तर्वीप हैं। इनमें रहने वाले मनुष्य भी उपचार से इसी नाम से व्यवहृत होते हैं, क्योंकि जो जहाँ रहता है वह उसी नाम से कहा जाता है। हिमवान पर्वत की चारों विदिशाओं में सात-सात अन्तर्वीप निम्नानुसार है1. ईशानकोण में- एकोरुक द्वीप, हयकर्ण, आदर्शमुख, अश्वमुख, अश्वकर्ण, उल्कामुख एवं घनदन्त। 2. आग्नेयकोण में- आभासिक द्वीप, गजकर्ण द्वीप, मेण्ढमुख द्वीप, हस्तिमुख द्वीप, हरिकर्ण द्वीप, मेघमुख द्वीप एवं लष्टदन्त द्वीप। 3. नैऋत्यकोण में- वैषाणिक द्वीप, गोकर्ण द्वीप, अयोमुख द्वीप, सिंहमुखद्वीप, अकर्णद्वीप, विद्युन्मुख द्वीप एवं गूढदन्त द्वीपा 4. वायव्य कोण में- नांगोलिक द्वीप, शष्कुलीकर्ण द्वीप, गोमुख द्वीप, व्याघ्रमुख द्वीप, कर्णप्रावरण द्वीप, विद्युदन्त द्वीप एवं शुद्धदन्त। इस प्रकार हिमवान पर्वत की चार दाढाओं पर ये (७ x ४) अठाईस अन्तर्वीप हैं। हिमवान पर्वत के समान शिखरी पर्वत के भी चारों विदिशाओं में चार दाढाओं पर २८ अन्तर्वीप हैं। अतः दोनों को मिलाकर कुल ५६ अन्तर्वीप हैं।" मनुष्य दो प्रकार के होते हैं- सम्मूर्छिम और गर्भजा" सम्मूर्छिम मनुष्य संज्ञी पंचेन्द्रिय और नपुंसक होते हैं। ये लब्धि अपर्याप्तक भी होते हैं। गर्भज मनुष्य के समान पूर्ण विकसित नहीं होते हैं। मात्र आहार ग्रहण करने के अनन्तर अन्तर्मुहूर्त में इनकी मृत्यु हो जाती है। इनकी उत्पत्ति गर्भज मनुष्यों की विष्ठा, मूत्र, श्लेष्म, कफ-बलगम, वमन, पित्त, खून, वीर्य, मृत कलेवर, स्त्री-पुरुष के संयोग आदि सभी प्रकार के अपवित्र स्थानों में होती है। सम्मूर्छिम मनुष्य के एक सौ एक भेद क्षेत्र की अपेक्षा से कहे जाते हैं।"
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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