SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 62 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन जव, गेहूँ, शाल, चावल, साढी चावल, कोद्रव, अणुक, कांग, खिरनी, तिल, मूंग, उडद, अलसी, हरिमंथ, तिऊडग, निष्फाव, सिल, राजमा, उख्खू, मसूर, अरहर, कुलथी, धनिया और चने।" 11. जलरुह- जल में उत्पन्न होने वाले वनस्पति जीव कमल, कुमुद, शैवल, कदम्ब, केशरुक, पनक आदि जलरुह कहलाते हैं।" 12. कुहण- भूमि को तोड़कर निकलने वाले वनस्पति जीव कुहण कहलाते हैं, जैसे कुकुरमुत्ता आदि। 6. साधारण बादर वनस्पतिकायिक अथवा बादर निगोद जीव- उपाध्याय विनयविजय ने साधारण बादर वनस्पति का लक्षण इस प्रकार प्रतिपादित किया है __ शरीरोच्छवासनिःश्वासाहाराः साधारणाः खलु। येषामनन्तजीवानां ते स्युः साधारणांगिनः ।। अर्थात् जिस अनन्तकाय जीव के शरीर का उच्छ्वास, निःश्वास और आहार साधारण होता है वह साधारण बादर वनस्पतिकायिक कहलाता है। अर्थात् ये जीव एक साथ उत्पन्न होते हैं, एक साथ शरीर बनाते हैं, प्राणापान के योग्य पुद्गलों को एक साथ ग्रहण कर श्वासोच्छ्वास करते हैं, आहारादि के पुद्गलों को ग्रहण कर आहार करते हैं। एक जीव द्वारा आहारादि पुद्गलों को ग्रहण करने पर सभी जीवों का आहारादि पुद्गल ग्रहण हो जाता है, क्योंकि सभी जीव एक शरीर पर ही आश्रित होते हैं यही साधारण जीवों की साधारणता का लक्षण है। ___साधारण बादरवनस्पतिकाय अथवा बादरनिगोद को एक शरीर में अनन्त जीवों के आश्रय से अनन्तकायिकवनस्पति भी कहा जाता है। यह अनन्तकायिक वनस्पति कौन-कौनसी होती है, इस विषय में लोकप्रकाश" और प्रज्ञापना सूत्र में विश्लेषणात्मक विवेचन प्राप्त होता है१. टूटे हुए मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पुष्प, फल, बीज का समभंग प्रदेश अनन्तकायिक होता है। २. मूल, कन्द, स्कन्ध और शाखा की छाल मूल काष्ठ की अपेक्षा अधिक स्थूल होने से अनन्तकायिक होती है। ३. टूटे हुए मूल, कन्द, स्कन्ध, छाल, शाखा, पत्र और पुष्प (रज से व्याप्त) का पर्व अनन्तकायिक होता है। ४. क्षीर सहित या क्षीर रहित पत्र की शिराएँ और सन्धि सर्वथा दिखाई न देती हो वह अनन्तकायिक होता है। ५. जलज और स्थलज प्रकार के पुष्प वृन्तबद्ध और नालबद्ध होते हैं। इनमें से कुछ संख्यात, कुछ
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy