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________________ 380 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन ४. औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र ये दो प्रकार औपशमिक भाव के होते हैं। दर्शन सप्तक का उपशम होने से औपशमिक सम्यक्त्व उत्पन्न होता है और उपशमश्रेणी से जीव के मोहनीय कर्म की अन्य प्रकृतियों का उपशम होने से औपशमिक चारित्र प्रकट होता ५. क्षायिक भाव में सर्वप्रथम क्षायिक सम्यक्त्व प्रकट होता है। तत्पश्चात् केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, चारित्र मोहनीय एवं दानान्तराय आदि पाँच के क्षय से क्रमशः केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिक चारित्र, अनन्तदान, अनन्तलाभ, अनन्त भोग, अनन्त उपभोग और अनन्त वीर्य प्रकट होता है। इस प्रकार क्षायिक भाव नौ प्रकार का कहा गया है। ६. आयुष्य बन्ध से पूर्व क्षायिक भाव प्राप्त करने पर जीव उसी भव में मुक्तिगामी बन जाता ७. क्षायोपशमिक भाव में सर्वघाती स्पर्धकों का वर्तमान में उदयाभावी क्षय और भविष्य की अपेक्षा सदवस्था रूप उपशम होता है। देशघाती सम्यक्त्व प्रकृत्ति के स्पर्द्धकों का इस भाव में उदय रहता है। इस भाव में ज्ञानावरण और दर्शनावरण की देशघाती प्रकृतियों के क्षयोपशम से मतिज्ञान, मतिअज्ञान, श्रुतज्ञान, श्रुतअज्ञान, अवधिज्ञान, विभंगज्ञान, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन एवं अवधिदर्शन का प्रकटीकरण होता है। ८. औदयिक भाव और पारिणामिक भाव जीव और अजीव दोनों को होते हैं। . ६. एक साथ दो, तीन, चार अथवा पाँच भावों के संयोग में आत्मा का पर्याय-परिणमन सन्निपातिक भाव है। अतः सान्निपातिक भाव के द्विकसंयोग, त्रिकसंयोग, चतुःसंयोग और पंचसंयोग के रूप में २६ प्रकार का होता है। १०.ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन कर्मों के क्षय आदि से चार भाव प्रकट होते हैं, औपशमिक भाव प्रकट नहीं होता। मोहनीय कर्म के क्षयादि से पाँचों भाव होते हैं। वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र इन चार कमों के क्षयादि से क्षायिक, औदयिक और पारिणामिक भाव होते हैं। ११. औपशमिक भाव केवल मोहनीय कर्म का ही होता है। क्षायोपशमिक भाव चारों घातिको का ही होता है। क्षायोपशमिक भाव चारों घाति कर्मों से सम्बद्ध है। क्षायिक, औदयिक और पारिणामिक ये तीनों भाव आठों कर्मों से सम्बद्ध हैं। १२. मनुष्य, तियेच, देव और नारक इन चारों गतियों में पांचों भाव होते हैं। १३. मिथ्यादृष्टि आदि प्रथम तीन गुणस्थान में क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक ये तीन
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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