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________________ लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन . 336 तथा वर्तमानकाल पर ही आश्रित जो समय आने वाला है वह 'अनागतकाल' कहलाता हैअवधीकृत्य समयं वर्त्तमानं विवक्षितं । भूतः समयराशिर्यः कालोऽतीतः स उच्यते ।। अवधीकृत्य समयं वर्त्तमानं विवक्षितं । भावी समयराशिर्यः कालः स स्यादनागतः ।। १३६ एक समय से लेकर शीर्ष प्रहेलिका तक का काल संख्यातकाल, पल्योपम, सागरोपम आदि असंख्यातकाल और पुद्गलपरावर्तादिक रूपकाल अनन्तकाल कहलाते हैं संख्येयश्चाप्यसंख्येयोऽनंतश्चेत्यथवा त्रिधा । शीर्षप्रहेलिकांतः स्यात्तत्राद्यः समयादिकः । । असंख्येयः पुनः कालः ख्यातः पल्योपमादिकः। अनन्तः पुद्गलपरावर्त्तादिः परिकीर्त्तितः।। ७ 1. संख्यातकाल १३८ प्रमाणकाल में संख्यातकाल का सर्वप्रथम विभाग 'समय' है । अत्यन्त सूक्ष्म होने से योगी भी इसका विभाग नहीं कर सकते हैं। " यह समय काल की सबसे सूक्ष्मतम इकाई है। लोकप्रकाशकार ने जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों को फाड़ना, कमल के सौ पत्रों का छेदन करना, आँख का निमीलन, चुटकी बजाना आदि उदाहरणों से समय के स्वरूप को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। ' १३६ असंख्य समयों का समुदाय एक आवलिका होती है। संख्यात आवलिकाओं का समूह एक प्राण होता है। जरा और व्याधि रहित नीरोग मनुष्य का एक उच्छ्वास निश्वास 'प्राण' कहा जाता है। संख्येय आवलिका जितना एक उच्छ्वास और संख्येय आवलिका जितना एक निःश्वास भी होता है। अतः उच्छ्वास और निःश्वास दोनों की संख्येय - संख्येय आवलिकाओं को मिलाकर एक प्राण कहा गया है संख्येयावलिकामानौ प्रत्येकं तावुभावपि । द्वाभ्यां समुदिताभ्यां स्यात्कालः प्राण इति श्रुतः । । रोगी मनुष्य का उच्छ्वास- निःश्वास क्रम नियमित नहीं होता है, इसलिए नीरोग मनुष्य के उच्छ्वास-निःश्वास से तुलना की गई है। १४१ सात प्राणों जितना एक स्तोक होता है । सात स्तोक जितना एक लव और साढ़े अड़तीस लव प्रमाणकाल की एक नालिका होती है। " अनुयोगद्वारसूत्र में लव प्रमाणकाल के पश्चात् मुहूर्त की गणना की गई है- ‘लवाणं सत्तहत्तरिए, एस मुहूत्ते वियाहिए ।' अर्थात् ७७ लव का एक मूहूर्त्त कहा गया है।
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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