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________________ 325 काललोक संचय-प्रदेश संचय नहीं बन पाता है। अतः बहुप्रदेशों का अभाव सदैव बना रहता है। इसीलिए कालद्रव्यं का कायत्व नहीं है। ४. वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श तथा चेतनता से रहित होने के कारण कालद्रव्य अमूर्त और अचेतन भी होता है। ५. कालद्रव्य तटस्थ परिणामक है, क्योंकि यह द्रव्य अन्य द्रव्यों की पर्यायों का परिणमन करते हुए अपने गुणों को अन्य द्रव्य के रूप में परिणमित नहीं करता और साथ ही अन्य द्रव्यों के गुणों को स्व में भी परिणमित नहीं करता है। उदासीन भाव से सभी की पर्याय परिणमन का हेतु बनता है। ६. समय काल की सूक्ष्मतम इकाई है। वर्तमान समय एक है और अतीत एवं अनागत समय अनन्त कालद्रव्य का अनस्तिकायत्व अस्तिकाय जैनदर्शन का विशिष्ट शब्द है। जो अस्तिकाय होता है वह द्रव्य भी होता है, किन्तु जो द्रव्य होता है वह अस्तिकाय भी हो यह आवश्यक नहीं है। इसीलिए जैन दर्शन में 'काल' द्रव्य होते हुए भी अस्तिकाय नहीं है। लोक का स्वरूप जैन आगमों में अस्तिकाय और द्रव्य रूप में दो प्रकारों से व्याख्यायित है। अस्तिकाय पाँच है और द्रव्य छह हैं।" अतः इन दोनों में होने वाला भेद विचारणीय है१. 'अस्ति' यह त्रिकालवचन निपात है। “अस्तीत्ययं त्रिकालवचनो निपातः अभुवन भवन्ति भविष्यन्ति चेति भावना अतोऽस्ति च ते प्रदेशानां कायाश्च राशय इति अस्तिकायः।" इसका तात्पर्य है कि प्रदेशों की जो कायस्वरूप अथवा राशि (समूह) रूप तीनों काल में विद्यमान रहती है वह अस्तिकाय कहलाती है। धर्म, अधर्म, आकाश, जीव और पुद्गल प्रत्येक तीनों कालों में राशि रूप में रहते हैं। काल राशिस्वरूप नहीं है, अतः अनस्तिकाय है। २. 'अस्तिशब्देन प्रदेशप्रदेशाः क्वचिदुच्यन्ते, ततश्च तेषां वा कायाः अस्तिकायाः। अस्ति यह शब्द प्रदेश का भी वाचक है। इस प्रकार प्रदेशों का समूह भी अस्तिकाय कहलाता है। काल में प्रदेश प्रचय नहीं होता है। प्रदेश प्रचय के अभाव में काल का अनस्तिकायत्व सिद्ध होता है। ३. व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में वर्णित गौतम गणधर और भगवान् महावीर का संवाद अस्तिकाय और द्रव्य के भेद को स्पष्टतया प्रस्तुत करता है....... "एगे भंते! धम्मत्थिकायपदेसे धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव् सिया?गोयमा! णो इणढे समढें। एवं दोण्णि तिण्णि चत्तारि पंच छ सत्त अट्ठ नव दस संखेज्जा असंखेज्जा भंते! धम्मत्थिकायप्पदेसा 'धम्मत्थिकाए'त्ति वत्तव्वं सिया?
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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