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________________ 308 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन प्रारम्भ होता है और ११० योजन में जाकर सम्पूर्ण होता है। यह ज्योतिष चक्र गोलाकार रूप में परिभ्रमण करता है। अलोक से १११ योजन पहले ज्योतिष चक्र स्थिर है। ज्योतिष चक्र में सबसे नीचे तारा मंडल है जो समतल भूमि से ७६० योजन ऊँचा होता है। इससे दस योजन ऊपर सूर्य मण्डल है, यह समतल से ८०० योजन ऊँचा है। सूर्यमंडल से ८० योजन ऊँचाई पर चन्द्र मंडल आता है जो समतल भूमि से ८८० योजन ऊँचा है।३२ ऊर्ध्वलोक रुचक प्रदेश से ६०० योजन ऊपर जाने के बाद ऊर्ध्वलोक का प्रारम्भ होता है और यहीं पर तिर्यग् लोक का अन्त होता है। ऊर्ध्वलोक कुछ कम सात राजुलोक प्रमाण है और उसकी अवधि सिद्धक्षेत्र तक है। रुचक प्रदेश से ऊपर ऊर्ध्वलोक के प्रथम राजुलोक के प्रथम विभाग में स्फुरायमाण कान्ति वाले सौधर्म और ईशान नामक दो देवलोक हैं। सम श्रेणि में स्थित दोनों देवलोक पूर्णचन्द्र की आकृति में दिखाई देते हैं। मेरु पर्वत के दक्षिण दिशा में सौधर्म देवलोक है और उत्तर दिशा में ईशान देवलोक है। सौधर्म और ईशान देवलोक के असंख्य कोटाकोटि योजन ऊपर सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोक गोलाकार में स्थित हैं। सौधर्म देवलोक के बराबर ऊपर समान दिशा में सनत्कुमार देवलोक और ईशान के ऊपर माहेन्द्र देवलोक होता है। तीसरे और चौथे देवलोक से असंख्य कोटाकोटि योजन ऊपर ठीक मध्य स्थान में पूर्ण चन्द्र की आकृति वाला पाँचवां ब्रह्मलोक नामक देवलोक है। सौधर्म से माहेन्द्र देवलोक तक के चारों देवलोक का संस्थान अर्ध चन्द्राकार है, परन्तु समश्रेणि में स्थित होने पर वे पूर्ण चन्द्रमा के आकार को ग्रहण करते हैं। ब्रह्मदेवलोक से असंख्य कोटाकोटि योजन ऊपर पाँच प्रतरों से युक्त लांतक नामक छठा देवलोक है। लान्तक देवलोक से असंख्य कोटाकोटि योजन ऊपर महाशुक्र नामक सातवां देवलोक है। यह भी सम्पूर्ण चन्द्राकार वाला है। महाशुक्र देवलोक से बराबर ऊपर असंख्य कोटाकोटि योजन दूर सहस्रार नामक आठवां देवलोक है।"" सहस्रार देवलोक से असंख्य योजन ऊपर दक्षिण और उत्तर दिशा में क्रमशः आनत और प्राणत नामक नवां और दसवां देवलोक है। इसी तरह आनत और प्राणत से समान श्रेणि में असंख्य योजन ऊपर आरण और अच्युत नामक ग्यारहवां और बारहवां देवलोक है। मणिमय विमान से ये दोनों देवलोक शोभायमान हैं। आरण और अच्युत देवलोक से बहुत ऊपर ग्रैवेयक नाम के नौ प्रतर हैं। अधस्तनत्रिक, मध्यमत्रिक और उपरिस्तनत्रिक इस तरह तीन प्रकार के त्रिकों में नौ ग्रैवेयक पूर्ण चन्द्राकार समान देदीप्यमान हैं। नौ ग्रैवेयक से असंख्य
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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