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________________ लोक है। षष्ठ अध्याय वैदिक साहित्य, पुराण साहित्य, योगदर्शन, जैनदर्शन और बौद्धदर्शन सभी ने लोक के स्वरूप की चर्चा की है। सभी ने स्व-स्व दृष्टि से लोक का निरूपण किया है। वैदिक और पुराण साहित्य के अनुसार लोक के पृथ्वीलोक, अन्तरिक्षलोक और धुलोक तीन प्रकार हैं। योगदर्शन के भाष्यकार व्यास ने लोक की संख्या सात बताई है।' जैन दार्शनिक लोक के अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक तीन विभाग स्वीकार करते हैं । उपाध्याय विनयविजय पाँच भिन्न-भिन्न उपमाओं से लोक का आकार-प्रकार प्रस्तुत करते हैं (9) नरं वैशाखसंस्थानस्थितपादं कटीतटे । क्षेत्रलोक (३) 3 न्यस्तहस्तद्वयं सर्वदिक्षु लोकोऽनुगच्छति । ।' अर्थात् दोनों हाथ कटितट पर रखकर वैशाख संस्थान के समान खड़े पुरुष के समान यह चिरमूर्ध्वदमा चिरन्तनतयापि च । असौ लोकनरः श्रान्त इव कट्यां न्यधात् करौ । । ' अर्थात् लम्बे समय तक ऊँची-ऊँची श्वास लेने के कारण तथा वृद्धावस्था के कारण बहुत थकने से कमर पर रखे हुए दोनों हाथ वाले पुरुष के समान यह लोक है। अथवाऽधोमुखस्थायि महाशरावपृष्ठगम् । एष लोकोऽनुकुरूते शरावसंपुटं लघु ।। * अर्थात् अधोमुख में रहे एक बड़े शराव के पृष्ठ भाग पर रखे एक छोटे शराव के समान आकार का यह लोक है। धृतः कृतो न केनापि स्वयं सिद्धो निराश्रयः । निरालम्ब शाश्वतश्च विहायसि परं स्थितः । । ' अर्थात् यह लोक किसी के द्वारा भी धारण नहीं किया गया है और न किसी ने इसे बनाया है। यह स्वयं सिद्ध, निराश्रय, निरालम्ब और शाश्वत है तथा आकाश में स्थित है। उत्पत्तिविलयध्रौव्यगुणषड्द्रव्यपूरितः । मौलिस्थसिद्धमुदितो नृत्यायेवाततक्रमः ।।'
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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