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________________ 274 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन २. मान शब्द जहाँ अभिमान या अहंकार के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है वहाँ उसका दूसरा अर्थ मापन जैन आगमों में प्रयुक्त हुआ है। मान द्वार के अन्तर्गत उपाध्याय विनयविजय ने लोक में जीवों की संख्या का निरूपण किया है। यह मान एक प्रकार से परिमाण का सूचक है। इसमें निरूपित किया गया है कि सूक्ष्म अग्निकाय, पृथ्वीकाय, अप्काय और वायुकाय के जीव सम्पूर्ण लोक प्रमाण के असंख्य आकाश खण्ड के प्रदेशों के बराबर हैं अर्थात् सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं। इसी प्रकार अन्य जीवों की संख्या का भी उल्लेख किया गया है। सम्मूर्छिम और गर्भज मनुष्य की एकत्रित संख्या उत्कृष्ट असंख्यात कालचक्र में होने वाले समय के तुल्य बताई गई है। जीवों की संख्या एवं उनके द्वारा गृहीत आकाश प्रदेशों की संख्या के आधार पर किया गया निरूपण जैन दर्शन की सूक्ष्मेक्षिका को व्यक्त करता है। ३. संख्या में कौनसे जीव सबसे अल्प एवं कौनसे जीव सबसे अधिक हैं, इसका विचार दो दृष्टियों से किया गया है- जीवों की परस्पर न्यूनाधिकता के आधार पर तथा पूर्व आदि दिशाओं के आधार पर। इस वर्णन में कहा गया है कि सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों में सबसे अल्प सूक्ष्म तेजस्कायिक जीव हैं, किन्तु दिशा के आधार पर इनके अल्पबहुत्व का निर्धारण नहीं हो सकता क्योंकि ये जीव प्रायः सम्पूर्ण लोक में समान रूप से व्याप्त हैं। बादर एकेन्द्रिय जीव, अप्कायिक जीव पश्चिम दिशा में सबसे कम होते हैं क्योंकि इस दिशा में गौतम द्वीप होने से जल का अभाव है। विकलेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति भी इसी कारण पश्चिम दिशा में कम होती है। तियेच पंचेन्द्रिय जीवों में सजातीय अपेक्षा से सबसे अल्प खेचर पुल्लिंग जीव होते हैं। इसी प्रकार मनुष्यों में गर्भज पुरुष सबसे कम होते हैं। दिशा की अपेक्षा से दक्षिण और उत्तर दिशा में मनुष्यों की संख्या कम होती है तथा पूर्व एवं पश्चिम में भरत और ऐरवत क्षेत्र का विस्तार अधिक होने से मनुष्यों की संख्या अधिक है। यह भी तथ्य प्रकट हुआ है कि देवों की अपेक्षा देवियों की संख्या अधिक होती है। नारक जीवों में सबसे कम सातवीं नरक के तथा सबसे अधिक पहली नरक के जीव होते हैं। ४. अल्पबहुत्व का विचार दो प्रकार से किया गया है- सजातीय जीवों की अपेक्षा से और समस्त जीवों की अपेक्षा से। समस्त जीवों की अपेक्षा से प्रतिपादित अल्पबहुत्व को महा-अल्पबहुत्व कहा गया है। इस दृष्टि से सम्पूर्ण लोक में गर्भज मनुष्यों की संख्या सबसे कम है तथा एकेन्द्रिय जीव सबसे अधिक हैं। अन्य दृष्टि से विचार करें तो चारों गतियों में मिथ्यादृष्टि जीव अधिक हैं। उनसे भी अधिक अविरत जीव हैं। उनसे भी सकषायी जीवों की संख्या अधिक मानी गई है। उपाध्याय विनयविजय ने यह निरूपण प्रज्ञापना सूत्र आदि
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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