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________________ 269 जीव-विवेचन (4) करता है। इसी तरह यदि कर्मभूमिज अथवा संख्यातायु सन्नी मनुष्य, तिथंच एवं असन्नी तिर्यच पृथ्वीकाय आदि पांच स्थावर तथा विकलेन्द्रिय में चतुर्भगी के किसी भी भंग से उत्पन्न हो तो उत्कृष्ट आठ और जघन्य दो जन्म करते हैं।" यदि कर्मभूमिज मनुष्य वायुकाय और तेजस्काय में उत्पन्न हो तो जघन्य और उत्कृष्ट दो ही जन्म करता है क्योंकि वायुकाय व तेजस्काय से मरकर निकले जीव को मनुष्य गति प्राप्त करना असंभव है।" विकलेन्द्रिय और पृथ्वीकाय आदि पांच स्थावर यदि संज्ञी व असंज्ञी तिथंच तथा कर्मभूमिज मनुष्य में चतुर्भगी में उत्पन्न होने पर उत्कृष्ट आठ जन्म करते हैं। पृथ्वीकाय आदि में चार जन्म और तिर्यच अथवा मनुष्य में चार जन्म ये कुल आठ जन्म होते हैं। पृथ्वीकाय आदि जीव मनुष्य और तिर्यंच के आठवें जन्म से मरकर पृथ्वीत्व आदि पर्याय प्राप्त न कर अन्य पर्याय प्राप्त करते हैं। जीवों का भवसंवैध काल मान चतुर्भगी के सभी विभागों में जघन्य तथा उत्कृष्ट आयु की अपेक्षा से जीव का भवसंवेध काल भिन्न-भिन्न होता है। भवसंवेध काल मान विवक्षित जन्म की और प्राप्त होने वाले जन्म की उत्कृष्ट तथा जघन्य स्थिति और उत्कृष्ट तथा जघन्य जन्म संख्या के परस्पर गुणन कर प्राप्त होने वाला परिणाम है। विवक्षितभवप्राप्य भवयोः परमां स्थितिम् । लब्धवा वा भवसंख्यां च जघन्यां वा गरीयसीम्। स्वयं विभाव्य निष्टंक्यं विवक्षितशरीरिणाम्। भवसंवेधकालस्य मानं ज्येष्ठमथावरम् ।।" यथा- उत्कृष्ट आयु वाला मनुष्य प्रथम नरक में उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त करें तब उस मनुष्य का उत्कृष्ट भवसंवेध काल मान चार कोटि पूर्व और चार सागरोपम का होता है तथा जघन्य भवसंवेध काल मान एक कोटि पूर्व और एक सागरोपम का होता है। अर्थात् मनुष्य की उत्कृष्ट स्थिति एक कोटि पूर्व और प्रथम नरक की उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम होती है। संज्ञी मनुष्य प्रथम छह नरक में उत्कृष्ट आठ जन्म पूर्ण करते हैं। आठ जन्म में चार जन्म मनुष्यगति के और चार जन्म नरकगति के होते हैं। इस प्रकार एक कोटिपूर्व x ४ जन्म = ४ कोटिपूर्व और १ सागरोपम x ४ जन्म = ४ सागरोपम उत्कृष्ट भवसंवेधकाल मान मनुष्य का नरक गति में उत्पन्न होने पर बनता है। यदि उत्कृष्ट स्थिति एक कोटिपूर्व वाला मनुष्य, एक सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाले प्रथम नरक में उत्पन्न हो तब एक जन्म मनुष्य गति का और दूसरा जन्म नरक गति का होता है। उस समय उस मनुष्य का जघन्य भवसंवेध काल मान एक कोटिपूर्व और एक सागरोपम हो जाता है।
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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