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________________ जीव-विवेचन (4) 265 एक जन्म संज्ञी मनुष्य अथवा तिर्यच दूसरे जन्म में पहली नरक भूमि से छह नरक भूमि तक की किसी भी एक भूमि में उत्पन्न हो सकता है। तीसरा जन्म पुनः संज्ञी मनुष्य/तिर्यंच चतुर्थ जन्म पुनः नरक में पांचवां जन्म पुनः संज्ञी मनुष्य/तिर्यंच छठा जन्म पुनः नरक में सातवां जन्म पुनः संज्ञी मनुष्य/तिर्यच - आठवां जन्म पुनः नरक में नौवें जन्म में वही जीव नरक से च्यवन कर मनुष्य या तिथंच अन्य पर्याय को ग्रहण करता है अर्थात् यदि मनुष्य हो तो तिर्यंच पर्याय और तिर्यंच हो तो मनुष्य पर्याय ग्रहण करता है। संज्ञी मनुष्य अथवा तिर्यच नरक की इन छहों में से जिस भूमि में एक बार उत्पन्न होता है तो वह पुनः पुनः उसी नरक भूमि में उत्पन्न होगा अन्य नरक भूमियों में नहीं। यह स्थिति होने पर ही उपर्युक्त आठ जन्म की गणना की संगति होगी अन्यथा नहीं। अर्थात् प्रथम भूमि में उत्पन्न होने पर पुनः पुनः उसी में उत्पन्न होता है और उसी प्रकार द्वितीय, तृतीय आदि में भी जन्म होता है। इसी प्रकार संज्ञी मनुष्य अथवा तिथंच पंचेन्द्रिय दस भवनपति”, ५ ज्योतिषी", १६ वाणव्यन्तर तथा सौधर्म आदि आठवें देवलोक" में उत्कृष्ट आठ जन्म करते हैं। संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय सातवें नरक में जघन्य आयुष्य प्राप्त कर उत्कृष्ट सात बार जन्म इस प्रकार करता है - पहला जन्म संज्ञी तिथंच पंचेन्द्रिय - दूसरा जन्म सातवीं नरक तीसरा जन्म पुनः संज्ञी तिर्यच पंचेन्द्रिय - चौथा जन्म पुनः सातवीं नरक पांचवां जन्म पुनः संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय - छठा जन्म पुनः सातवां नरक सातवां जन्म पुनः संज्ञी तिथंच पंचेन्द्रिय ___ आठवें जन्म में अन्य जन्म धारण करता है। इसी प्रकार संज्ञी तिथंच पंचेन्द्रिय जीव यदि सातवें नरक में उत्कृष्ट आयुष्य प्राप्त करता है तो वह उत्कृष्ट पांच बार जन्म धारण करता है। दो जन्म सातवें नरक के और तीन जन्म तिर्यच गति के होते हैं।" संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय सातवें नरक में जघन्य और उत्कृष्ट आयुष्य प्राप्त कर जघन्य तीन जन्म करता है। इसमें दो जन्म तिर्यंच के और एक जन्म सातवें नरक का होता है। संज्ञी मनुष्य यदि सातवें नरक में उत्पन्न होता है तो वह जघन्य एवं उत्कृष्ट से दो जन्म पूर्ण करता है। संज्ञी मनुष्य यदि आनत, प्राणत, आरण और अच्युत नामक नौवें से बारहवें देवलोक में
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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