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जीव-विवेचन (4)
261 (अधिक से अधिक) जन्मों की गणना करना है। जैन आगम ग्रन्थ व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र के शतक २४ उद्देशक १-२४ में जीव के भवसंवेध का विस्तृत उल्लेख प्राप्त होता है। जैन विद्वानों ने इस भवसंवेध को लघुदण्डक, गति-आगति और गम्मा के थोकड़ों के माध्यम से प्रस्तुत किया है। लोकप्रकाशकार ने जीव के ३७ द्वारों में ३६वें भवसंवेध द्वार का दसवें सर्ग में स्पष्टतया विस्तृत विवेचन किया है।
आद्यः प्राच्याग्र्यभवयोज्येष्ठमायुर्यदा भवेत्। भंगोऽन्यः प्राग्भवे ज्येष्ठमल्पिष्टं स्यात्परे भवे।।
तृतीयः प्राग्भवेऽल्पीयो ज्येष्ठमायुभवपरे।
आयुर्लघु द्वयोस्तुर्योभंगेष्वेषु चतुर्वथ।।" उत्कृष्ट-उत्कृष्ट, उत्कृष्ट-जघन्य, जघन्य-उत्कृष्ट और जघन्य-जघन्य इस चतुभंगी से भवसंवेध का विभाजन किया गया है। जब पूर्वजन्म (वर्तमान जन्म) और परजन्म दोनों जन्म में उत्कृष्ट आयुष्य हो तब प्रथम विभाग उत्कृष्ट-उत्कृष्ट और जब पूर्वजन्म में उत्कृष्ट व परजन्म में जघन्य आयुष्य हो तब दूसरा विभाग उत्कृष्ट-जघन्य बनता है। इसी तरह जब पूर्वजन्म में जघन्य
और परजन्म में उत्कृष्ट आयुष्य हो तब तीसरा विभाग जघन्य-उत्कृष्ट तथा पूर्वजन्म और परजन्म दोनों में जघन्य आयुष्य हो तब चतुर्थ विभाग जघन्य-जघन्य बनता है।
- नरक, तिर्यंचादि चारों गतियों के जीवों का भवसंवेध तीन विधियों से सहज एवं स्पष्टतया ज्ञात हो सकता है
१. औदारिक शरीरी जीवों से वैक्रिय शरीर प्राप्त करने पर होने वाले भवसंवेधा २. वैक्रिय शरीरी जीवों से औदारिक शरीर प्राप्त कर लेने पर होने वाले भवसंवेधा ३. औदारिक शरीरी जीवों से औदारिक शरीर प्राप्त कर लेने पर होने वाले भवसंवेधा
औदारिक से वैक्रिय शरीर प्राप्त जीवों का भवसंवेध क्र. जीव का गमन
जघन्य जन्म । उत्कृष्ट जन्म . १ संज्ञी मनुष्य या तियेच जीव प्रथम से छठी नरक में
उत्पन्न हो तो भवनपति, ज्योतिष्क, व्यन्तर तथा पहले देवलोक से लेकर आठवें देवलोक तक में संज्ञी मनुष्य अथवा तियेच जीव उत्पन्न हों तो (१) सातवीं नरक भूमि माघवती में यदि संज्ञी पंचेन्द्रिय | तीन
तिर्यंच जघन्य आयुष्य प्राप्त कर उत्पन्न हों तो (२) सातवीं नरक भूमि माधवती में यदि संज्ञी पंचेन्द्रिय | तीन | तियेच उत्कृष्ट आयुष्य प्राप्त कर उत्पन्न हों तो ।
आठ
आठ
सात
पांच