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________________ 259 जीव-विवेचन (4) होते हैं। अतः तिर्यचों की अपेक्षा चारों गतियों के मिथ्यादृष्टि जीव विशेषाधिक हैं। ६३.मिथ्यादृष्टियों की अपेक्षा अविरत जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि इनमें अविरत सम्यग्दृष्टि भी समाविष्ट हैं। ६४.अविरत जीवों की अपेक्षा सकषाय जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि सकषाय जीवों में देशविरत और दशम गुणस्थान तक के सर्वविरत जीव सम्मिलित हैं। ६५.छद्मस्थ जीवों में उपशान्त मोहनीय युक्त जीवों का भी परिगणन होने से ये जीव सकषाय जीवों से विशेषाधिक हैं। ६६.सकषाय जीवों की अपेक्षा सयोगी जीव अधिक हैं, क्योंकि इनमें सयोगी केवली जीवों को भी । गिना जाता है। ६७.सयोगियों की अपेक्षा संसारी जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि संसारी जीवों में अयोगी केवली भी होते हैं। ६८.संसारी जीवों से सर्व जीव अधिक हैं, क्योंकि सर्व जीवों में सिद्धों का भी समावेश होता है। कौनसे जीव किन जीवों की अपेक्षा न्यूनाधिक हैं, इस प्रकार का निरूपण उपाध्याय विनयविजय ने प्रज्ञापना सूत्र आदि आगमों के आधार पर किया है। पैतीसवां अन्तर द्वार : उसी गति आदि की पुनः प्राप्ति का निरूपण अन्तर का अर्थ है काल का व्यवधान। काल का यह व्यवधान चार रूपों में दृष्टिगोचर होता है- गति, जाति, काय और पर्याय। 'गति' में काल के व्यवधान से तात्पर्य है कि जीव वर्तमान नरकादि गति से दूसरी गति में जाकर पुनः उस गति को कितने समय पश्चात् प्राप्त करता है। ठीक इसी प्रकार एकेन्द्रियादि जाति से मरकर अन्य जाति में उत्पन्न होकर पुनः उसी जाति को निश्चित काल पश्चात् पुनः प्राप्त करना 'जाति का अन्तर' होता है। इसी तरह पृथ्वीकायादि का 'काय अन्तर' और स्त्री, पुरुष तथा नपुंसक जीव का 'पर्याय अन्तर' होता है। उपाध्याय विनयविजय ने जीव के ३५वें द्वार में काय-अन्तर की अपेक्षा से अन्तर का निरूपण किया है, जो इस प्रकार हैसूक्ष्म एकेन्द्रिय सभी एकेन्द्रिय जीवों का सामान्य रूप से जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अर्थात् सूक्ष्म जीव अपना सूक्ष्मत्व छोड़कर बादर रूप में उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्त रहकर पुनः सूक्ष्मत्व प्राप्त करता है। सूक्ष्म जीवों का उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात-काल होता है। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त का होता है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है। सूक्ष्म पृथ्वीकायिकादि जीव वनस्पतिकाय में जन्म ग्रहण कर अनन्तकाल व्यतीत कर
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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