SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 282
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 253 जीव-विवेचन (4) संख्यात कोटाकोटि परिमित है।" १. मनुष्यस्त्रियाँ गर्भज मनुष्य की अपेक्षा संख्यात गुणा अधिक हैं, क्योंकि वे मनुष्य पुरुषों की अपेक्षा सत्ताईस गुणी और सत्ताईस अधिक होती हैं। कहा भी गया है- 'सत्तावीसगुणा पुणा मणुयाणं तदहिया चेव।०३ २. मनुष्यस्त्रियों की अपेक्षा बादर पर्याप्त तेजस्यकायिक जीव असंख्यात गुणा अधिक होते हैं, क्योंकि वे कतिपय वर्ग कम आवलिकाधन-समय प्रमाण हैं। ३. इन जीवों की अपेक्षा अनुत्तरौपपातिक देव असंख्यातगुणा अधिक हैं। ये जीव क्षेत्र पल्योपम के असंख्यातवें भागवर्ती आकाश प्रदेशों की राशि के बराबर हैं। ४. अनुत्तरौपपातिक देवों से ऊपरी तीन ग्रैवेयकों के देव संख्यात-गुणा अधिक हैं, क्योंकि वे बृहत्तर पल्योपम के असंख्यातवें भाग में रहे हुए आकाशप्रदेशों की राशि के बराबर हैं। अनुत्तर देवों के मात्र पांच विमान होते हैं, जबकि ऊपर के तीन ग्रैवेयकों में सौ विमान हैं और प्रत्येक विमान में असंख्यात देव रहते हैं। अतएव अनुत्तर विमानों की अपेक्षा ग्रैवेयकों के देव असंख्यात गुणा अधिक हैं। इसी प्रकार आगे के देव भी विमानाधिक होने से संख्यात गुणा अधिक अधिक होते जायेंगे। ५. ऊपरी ग्रैवेयक देवों से मध्यम ग्रैवेयकों के देव संख्यात-गुणा अधिक हैं। ६. मध्यम ग्रैवेयक के देवों की अपेक्षा निचले तीन ग्रैवेयकों के देव संख्यात गुणा अधिक हैं। ७. इनकी अपेक्षा अच्युत कल्प के देव संख्यात गुणा हैं। ८. अच्युत्कल्प की अपेक्षा आरणकल्प में देव संख्यातगुणा अधिक हैं। यद्यपि आरण और अच्युतकल्प समानश्रेणी में स्थित हैं और दोनों के विमानों की संख्या बराबर है तथापि आरणकल्प का दक्षिण में अधिक विस्तार होने से वहाँ कृष्णपाक्षिक जीवों की उत्पत्ति शुक्लपाक्षिकों की अपेक्षा अधिक होती है। इस कारण अच्युतकल्प के देवों की अपेक्षा आरणकल्प के देव संख्यातगुणा अधिक हैं। ६. प्राणतकल्प के देव आरणकल्प के देवों से संख्यातगुणा अधिक हैं। १०.उनकी अपेक्षा आनतकल्प के देव संख्यात गुणा अधिक हैं। ११. आनतकल्प के देवों की अपेक्षा सातवीं नरकभूमि के नारक असंख्यातगुणा अधिक हैं . क्योंकि ये श्रेणि के असंख्यातवें भाग में स्थित आकाशप्रदेशों की राशि के बराबर हैं। १२. सातवीं पृथ्वी के नारक की अपेक्षा छठी तमःप्रभा पृथ्वी के नारक असंख्यात गुणा अधिक
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy