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________________ 214 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव संयमी होते हुए भी प्रमत्त होता है। संयमी होने पर भी जीव प्रमादों में रहता है। गोम्मटसार जीवकाण्ड' और षट्खण्डागम की धवला टीका में पन्द्रह प्रकार के प्रमादों की चर्चा मिलती है। जीव चार प्रकार की विकथा, चार प्रकार के कषाय, पाँच इन्द्रियाँ, एक निद्रा और स्नेह कुल पन्द्रह प्रकार के प्रमाद में रत रहता है विकहा तहा कसाया इंदियणिद्दा तहेव पणयो य । चदु चदु पणमेगेगं होंति पमादा हु पण्णरसा।। लोकप्रकाशकार ने पन्द्रह प्रमादों में से कुछ ही प्रमादों जैसे विकथा, कषाय, निद्रा आदि का उल्लेख किया है- 'कषायनिद्राविकथादिप्रमादैः प्रमाद्यति । लक्षण छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान प्राप्त करने वाले जीव के कुछ लक्षण इस प्रकार हैं१. यथार्थ बोध के पश्चात् जो साधक हिंसा, झूठ, मैथुन आदि अनैतिक आचरण से पूरी तरह निवृत्त होकर नैतिकता के मार्ग पर दृढ़ कदम रखकर बढ़ना चाहते हैं, वे इस वर्ग में आते २. इस गुणस्थान में प्रत्याख्यानावरण कषाय का क्षयोपशम होने से जीव सामायिक अथवा छेदोपस्थापनीय चारित्र प्राप्त करता है। ३. इस गुणस्थान में स्थित साधक में क्रोधादि कषायों की बाह्य अभिव्यक्ति का अभाव होता है ___ यद्यपि बीज रूप में वे बनी रहती हैं। ४. साधक इस गुणस्थान में पहुँचकर अशुभाचरण से अधिकांश रूप में विरत हो जाता है और अशुभ मनोवृत्तियों को क्षीण करने का भरसक प्रयास करता है। ५. इस अवस्था में आचरण शुद्धि तो हो जाती है, परन्तु विचारशुद्धि का प्रयास चलता रहता ६. इस गुणस्थानवर्ती साधक को साधना के लक्ष्य का भान तो रहता है, परन्तु लक्ष्य के प्रति ___ सतत जागरूकता का अपेक्षाकृत अभाव रहता है। ७. इस अवस्था में आत्मकल्याण के साथ लोककल्याण की भावना और तदनुकूल प्रवृत्ति होती ८. इस अवस्था में पूर्ण आत्म-जागृति सम्भव नहीं है। 7. अप्रमत्तसंयत गुणस्थान अप्रमाद जनित विशिष्ट शान्ति का अनुभव करने की प्रबल लालसा से प्रेरित होकर
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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