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________________ जीव-विवेचन (3) 209 अतः मृत्यु के समय यह संघर्ष समाप्त होकर या तो मिथ्यादृष्टिकोण को स्वीकार करता है अथवा सम्यक् दृष्टिकोण को। ४. सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सकल संयम अथवा देशसंयम को ग्रहण नहीं करता, क्योंकि उनको ग्रहण करने योग्य परिणाम उसमें नहीं होते। 4. अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान सम्यक्त्ववान होने पर भी जीव का सावद्ययोगों से त्याग न होने का भाव अथवा परिणाम आत्मविकास की चतुर्थ अवस्था ‘अविरत सम्यग्दृष्टि' गुणस्थान कहलाती है। हिंसादि सावध व्यापारों और पापजनक प्रयत्नों का त्याग 'विरति' कहलाती है और पापयुक्त व्यापार एवं प्रयत्न का त्याग नहीं होना 'अविरति' कहलाता है। औपशमिक२६६, क्षायिक एवं क्षायोपशमिक तीन सम्यक्त्वों में से कोई एक सम्यक्त्व निश्चय से इस चतुर्थ अवस्था में होता है। अतः सम्यग्दृष्टि होकर भी जो जीव चारित्र मोह के उदय से व्रत को धारण नहीं कर सकता है उसे 'अविरतिसम्यग्दृष्टि' कहते हैं और यह स्वरूपविशेष 'अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान' होता है।२७२ गोम्मटसार, षट्खण्डागम, तत्त्वार्थराजवार्तिक और मूलाचार में इस गुणस्थान की अपार संज्ञा 'असंयत सम्यग्दृष्टि' मिलती है। इस सूत्र में प्रयुक्त सम्यग्दृष्टि पद आगे के समस्त गुणस्थानों में अनुवृत्ति को प्राप्त होता है अर्थात् पांचवें आदि समस्त गुणस्थानों में सम्यग्दर्शन पाया जाता है। आचार्य हरिभद्र ने सम्यग्दृष्टि अवस्था की तुलना स्थविरवादी बौद्ध परम्परा में महायान के 'बोधिसत्त्व' पद से की है। क्योंकि बोधिसत्त्व का साधारण अर्थ है- ज्ञानप्राप्ति का इच्छुक। अतः इस अर्थ की अपेक्षा से बोधिसत्त्व सम्यग्दृष्टि से तुलनीय है। यदि बोधिसत्त्व के लोककल्याण के आदर्श को सामने रखकर तुलना करें तो वह बोधिसत्त्व उस सम्यग्दृष्टि जीव के तुल्य होता है जो भावी तीर्थकर हो। लक्षण इस अवस्था तक आने पर जीव के आत्मीय भावों में कुछ परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं जो इस प्रकार हैं१. इस गुणस्थान में औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक इन तीन में से कोई एक सम्यक्त्व होने से हेयोपादेय का विवेक होता है। ... २. जीव की संसार के प्रति आसक्ति भाव में न्यूनता आती है। ३. आत्महितकारी प्रवृत्ति में उल्लास-वृद्धि होती है। .. ४. संयमविघातक अप्रत्याख्यानावरणकषाय का उदय रहने से आंशिक संयम का भी पालन
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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