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________________ 205 जीव-विवेचन (3) अभव्य आत्मा वह आत्मा जो कभी भी आध्यात्मिक विकास नहीं कर सकेगी और न यथार्थ बोध ही प्राप्त कर सकेगी, वह अभव्य आत्मा होती है। प्रबल मिथ्यात्व मोह के उदय से सम्यक्त्व रूप आत्मा आच्छादित होते हुए भी कुछ अंशों में अनावृत्त रहती है। उसी से मनुष्य, पशु आदि विषयों के अविपरीत प्रतीति भी प्रत्येक आत्मा को होती है। अतः इस अंशतः गुण की अपेक्षा से मिथ्यात्व को गुणस्थान की श्रेणी में रखा जाता है। ___ सम्यक्त्वी जीव का सर्वज्ञ कथन पर अखण्ड विश्वास होता है, किन्तु मिथ्यात्वी को नहीं होता है। इसीलिए मिथ्यात्वी को सम्यग्दृष्टि नहीं कहा जा सकता है। एक द्रव्य या पर्याय के विषय में बुद्धि की मंदता के कारण सम्यग्ज्ञान या मिथ्याज्ञान का अभाव होने से न तो एकान्त श्रद्धा होती है और न एकान्त अश्रद्धा, तब जीव मिथ्यादृष्टि कहलाता है। परन्तु प्रत्येक वस्तु या पर्याय के विषय में एकान्त अश्रद्धा होने से मिथ्यात्वी जीव को मिश्रदृष्टि भी नहीं कह सकते। काल की अपेक्षा से मिथ्यात्व के तीन भेद स्वीकार किए जाते हैं- १. अनादि अनन्त, २. अनादि सान्त और ३. सादि सान्त।" प्रथम भेद के अधिकारी अभव्य जीव अथवा जाति भव्य (जो जीव भव्य होकर भी कभी मुक्त नहीं होता) जीव हैं। ये जीव सदा मिथ्यात्व में ही रहते हैं। दूसरा भेद उन जीवों की अपेक्षा से है, जो जीव अनादिकालीन मिथ्यादर्शन रूप ग्रन्थि का भेदन करके सम्यग्दृष्टि बन जाते हैं। ये जीव भव्य कहलाते हैं। तीसरा भेद उन जीवों की अपेक्षा से है जो एक बार सम्यक्त्व प्राप्त करने के बाद पुनः मिथ्यात्वी हो जाते हैं। इन जीवों की अपेक्षा से प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान की आदि तब होती है, जब वे सम्यक्त्व से पतित होकर प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में आते हैं अथवा उपरिम गुणस्थानों से पतित होकर गिरते हुए मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त करते हैं। ऐसे जीवों की अपेक्षा से सादि-सान्त विकल्प है, क्योंकि जिसको एक बार सम्यक्त्व की प्राप्ति हो गई है, वह निश्चित मोक्षगामी होता है। 2. सास्वादन गुणस्थान सम्यक्त्व की विराधना आसादन कहलाती है। कोई भी जीव जब इस सम्यक्त्व विराधना रूपी आसादन भावों से युक्त होता है तब वह ‘सासादन' कहलाता है। आसादन शब्द 'आयसादन' से बना है। प्राकृत भाषा में इसे सासायण कहते हैं तथा संस्कृत में यह सास्वादन और सासादन दो रूपों में मिलता है। आयसादन से तात्पर्य है उपशम सम्यक्त्व के लाभ का नाश करना। व्याकरणशास्त्र के 'पृषोदरादि' नियम से आयसादन शब्द के यकार का लोप होने पर आसादन शब्द निष्पन्न होता है। २५४
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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