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________________ 194 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन अवधिज्ञान, मनःपर्यव ज्ञान, केवलज्ञान, मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान एवं विभंग ज्ञान। अनाकारोपयोग में चार दर्शन को सम्मिलित किया जाता है, यथा- चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन।" इस प्रकार साकारोपयोग ज्ञानात्मक और अनाकारोपयोग दर्शनात्मक होता है। ये दोनों उपयोग वर्ण, गंध, रस, स्पर्श रहित” और अगुरुलघु होते हैं। सूक्ष्म एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय जीवों में तीन उपयोग के अन्तर्गत दो अज्ञान (मतिअज्ञान व श्रुत अज्ञान) और एक दर्शन (अचक्षुदर्शन) होता है। विकलेन्द्रिय जीवों में पांच उपयोग होते हैं। चतुरिन्द्रिय जीव में विशेषतः छह उपयोग होते हैं। पाँच उपयोगों में चार 'साकारोपयोग'- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, मतिअज्ञान व श्रुतअज्ञान और एक 'अनाकारोपयोग'अचक्षुदर्शन होता है। चतुरिन्द्रिय के छह उपयोगों में पूर्व के पाँच और छठा अचक्षुदर्शन को सम्मिलित किया जाता है। सम्मूर्छिम तिर्यच पंचेन्द्रिय और मनुष्य को चार उपयोम (दो अज्ञान एवं दो दर्शन) और गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय को चार, पाँच, छह और ओघ से नौ उपयोग होते हैं। गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय को केवलज्ञान, केवलदर्शन और मनःपर्यव ज्ञान के अलावा सभी उपयोग हो सकते गर्भज मनुष्य को बारह उपयोग होते हैं। सम्यग्दृष्टि देवों को तीन ज्ञान (मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान) और तीन दर्शन (चक्षु, अचक्षु, अवधि) मिलाकर छह उपयोग होते हैं, जबकि मिथ्यादृष्टि देवों को तीन अज्ञान (मति, श्रुत, विभंग) एवं दो दर्शन (चक्षु व अचक्षु) मिलाकर पाँच उपयोग होते हैं।'६ नारकों को देवों के तुल्य ही छह एवं पाँच उपयोग होते हैं।' साकारोपयोग एवं अनाकारोपयोग में प्रत्येक की स्थिति जघन्य एवं उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। इनका परस्पर अन्तरकाल भी अन्तर्मुहूर्त ही है। एक अन्तर्मुहूर्त के अनन्तर ये क्रमशः बदलते रहते हैं। अल्पबहुत्व की अपेक्षा से अनाकारोपयोग युक्त जीव अल्प हैं तथा साकारोपयोग युक्त जीव उनसे संख्यातगुणे हैं। उनतीसवां द्वार : आहार-विचार 'आहार' शब्द की निष्पत्ति 'आ' समन्तात् अर्थक उपसर्ग युक्त 'ह' हरणार्थक धातु से घञ् प्रत्यय लगकर हुई है। अतः चारों ओर से ग्रहण करना या ले लेना आहार है। आहार संसारी जीवों की प्रथम आवश्यकता है। इससे ही औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीरों, पर्याप्तियों और इन्द्रियों का निर्माण होता है। विग्रह गति के अतिरिक्त जीव आहारयोग्य पुद्गलों को निरन्तर ग्रहण करते रहते हैं। आहार ग्रहण करने वाले जीव 'आहारक' और नहीं करने वाले 'अनाहारक' कहलाते हैं।
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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