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________________ 190 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन द्रव्य और उनकी त्रिकालवर्ती सम्पूर्ण सूक्ष्म और स्थूल पर्यायें इस ज्ञान के विषय हैं। यह क्षायिक ज्ञान सर्वोत्कृष्ट है। संसारी और मुक्त जीव की अपेक्षा से केवलज्ञान की भेदद्वयी है- भवस्थ केवलज्ञान और सिद्ध केवलज्ञान।"" केवलज्ञानावरण का क्षय होने पर संसारस्थ वीतरागियों (अरिहन्तों) को होने वाला केवलज्ञान ‘भवस्थ केवलज्ञान' कहलाता है और आठ कर्मों से मुक्त सिद्ध जीवों का केवलज्ञान 'सिद्ध केवलज्ञान' होता है। सिद्ध और भवस्थ केवली दोनों के केवलज्ञान में मूलतः कोई अन्तर नहीं है। दोनों समान रूप से विषय को ग्रहण करते हैं। दोनों में अघाती कर्मों के क्षय का ही अन्तर है । भवस्थ केवलज्ञानियों के जहाँ चार घाती कर्मों (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय एवं अन्तराय) का क्षय होता है वहाँ सिद्धों के शेष चार अघाती कर्मों (वेदनीय, नाम, गोत्र एवं आयुष्य ) का भी क्षय हो जाता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से ज्ञान का विवेचन मतिज्ञानी किसी अपेक्षा से द्रव्य से सर्वद्रव्यों को, क्षेत्र से लोकालोक को, काल से सर्वकाल को और भाव से सर्वभावों को जानता - देखता है । मतिज्ञानी ओघ से सर्वद्रव्य जानता है, परन्तु सर्व पर्याय सहित नहीं जानता है। ** श्रुतज्ञानी उपयोग युक्त होने पर द्रव्य से सर्वद्रव्यों को, क्षेत्र से सर्वक्षेत्र को, काल से सर्वकाल को और भाव से सर्वभावों को विषय करता है। श्रुतज्ञानी केवल अभिलाप्य (कथन करने योग्य) द्रव्यों को ही जान सकते हैं। *" अवधिज्ञानी द्रव्य से जघन्य से भाषा एवं तेज के रूपी द्रव्यों को उत्कृष्ट समस्त रूपी द्रव्यों को, क्षेत्र से जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग को उत्कृष्ट लोकाकाश जितने असंख्य खण्डों को, काल से जघन्य एक आवलिका के असंख्यातवें भाग व उत्कृष्ट वर्तमान के साथ असंख्यात भूत और भावी उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी परिणाम काल को एवं भाव से जघन्य व उत्कृष्ट अनन्त भावों को जानता है। ऋजुमति मन:पर्ययज्ञानी द्रव्य से अनन्त अनन्त प्रदेशिक स्कन्धों को जानता है और विपुलमति उन्हीं स्कन्धों को अधिक विपुल, विशुद्ध और स्पष्ट जानता है। क्षेत्र से ऋजुमति ज्ञानी जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग को एवं उत्कृष्ट नीचे रत्नप्रभा पृथ्वी के प्रतर, ऊँचे ज्योतिषचक्र पर्यन्त, मनुष्य क्षेत्र के अन्दर अढ़ाई द्वीप समुद्र पर्यन्त, पन्द्रह कर्मभूमि, तीस अकर्म-भूमि और छप्पन अन्तद्वीपों में विद्यमान संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों को जानता है और विपुलमति उन्हीं क्षेत्रों को अढाई अंगुल अधिक विपुल, विशुद्ध और स्पष्ट जानता है। काल से ऋजुमति जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग को तथा उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग भूत-भविष्यत् काल को जानता है और विपुलमति उसी काल कुछ अधिक सुस्पष्ट जानता है। भाव से ऋजुमति अनन्त भावों के अनन्तवें भाग को जानता है 989 को
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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