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________________ लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन तैईसवां द्वार : संज्ञी विषयक विचार संज्ञी का कथन लोकप्रकाशकार ने २३ वें 'संज्ञित' द्वार में किया है। संज्ञा को धारण करने वाले संज्ञी कहलाते हैं।” संज्ञा शब्द से नाम, इच्छा, सम्यग्ज्ञान आदि कई अर्थों का ग्रहण होता है। मनः पर्याप्ति और पाँच इन्द्रिय रूप संज्ञा के सद्भाव वाला जीव संज्ञी होता है। विशेषावश्यक सूत्रानुसार प्रकट, चैतन्यवान् और कर्म क्षयोपशम से उत्पन्न हुई आहारादि संज्ञा से युक्त जीव संज्ञी कहलाता है।" उमास्वाति समनस्क को संज्ञी मानते हैं और उपाध्याय विनयविजय" दीर्घकालिक संज्ञा युक्त जीव को संज्ञी स्वीकारते हैं। दोनों के कथन में साम्य है, क्योंकि दीर्घकालिकी संज्ञा मन वाले जीवों को होती है। हेय - उपादेय की विवेक - शक्ति मन सहित जीवों में होती है। अतएव ईहा-अपोह की अपेक्षा से गुण-दोषों के विवेक रूप संज्ञा को धारण करने वाले 'संज्ञी' कहलाते हैं, शेष सभी असंज्ञी होते हैं। 180 ४६ देव, नारकी और मनुष्य सब समनस्क (संज्ञी) होते हैं और तिर्यंच समनस्क तथा अमनस्क द्विविध होते हैं, शेष सभी एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियादि जीव असंज्ञी होते हैं। " चौबीसवां द्वार : वेद विषयक अवधारणा जैन दार्शनिक मोहनीय कर्म के अन्तर्गत तीन वेद (स्त्री, पुरुष एवं नपुंसक ) स्वीकार करते हैं। अतः इस परिप्रेक्ष्य में वे 'विद्+घञ्' से निष्पन्न 'वेद' शब्द का अर्थ जानना नहीं करके अनुभव अथवा भोग करना करते हैं। सर्वार्थसिद्धिकार और षट्खण्डागम धवलाटीकाकार के अनुसार जो वेदा जाए अथवा जिसका अनुभव किया जाए उसे वेद कहते हैं और इसी का द्रव्य अपेक्षा से दूसरा नाम लिंग है 'वेद्यत इति वेदः लिंगमित्यर्थः । पंचसंग्रहकार के अनुसार वेदकर्म की उदीरणा होने पर यह जीव नाना प्रकार के चांचल्यभाव को प्राप्त होता है और स्त्रीभाव, पुरुषभाव एवं नपुंसकभाव का वेदन करता है। अतएव वेदकर्म के उदय से होने वाले भाव को वेद कहा जाता है। धवलाटीकाकार भी एक और ऐसा ही अर्थ करते हैं कि आत्मा की चैतन्यरूप पर्याय में मैथुन रूप चित्तविक्षेप का उत्पन्न होना वेद कहलाता है। मोहनीय कर्म के उदय से यह मैथुन भाव उत्पन्न होता है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद एवं नपुंसकवेद के भेद से वेद तीन प्रकार के होते हैं 'वेदस्त्रिधा स्यात्पुंवेदः स्त्रीवेदश्च तथापरः । ** ये तीनों वेद निश्चय से द्रव्य और भाव की अपेक्षा से दो प्रकार के होते हैं। नामकर्म के उदय से योनि आदि बाह्यलिंग द्रव्य रूप वेद है और नोकषायचारित्र - मोहनीय के उदय से स्त्री-पुरुष आि
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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