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________________ 158 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन अष्टविध कर्मों से श्लिष्ट करती है, वह लेश्या है। मन, वचन, काया की प्रवृत्ति रूप योग के परिणाम विशेष को भी लेश्या कहा गया है। भट्ट अकलंक के मत में कषाय के उदय से रंजित प्रवृत्ति लेश्या है। उत्तराध्ययन सूत्र के टीकाकार शांतिसूरि के अनुसार लेश्या का निर्माण कर्मवर्गणा से होता है। लेश्या कर्म रूप होते हुए भी उससे पृथक् है। विनयविजय स्पष्ट करते हैं कि लेश्या के बिना कर्म पुद्गलों का आत्म-प्रदेशों से संयोग नहीं होता। लेश्या भी एक द्रव्य है जिसका समावेश योग वर्गणा में होता है। लेश्या का सम्बन्ध व्यक्ति के आभामण्डल से भी जोड़ा गया है। व्यक्ति के जैसे विचार होते हैं, जैसी उसकी लेश्या होती है, उसी प्रकार का उसका आभामण्डल होता है। लेश्या के द्रव्य एवं भाव भेदों का उल्लेख करने के साथ उसके छह भेद निरूपित हैं- कृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पद्म एवं शुक्ला इन छहों लेश्याओं का नाम, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, प्रदेशावगाह, स्थान, गति, स्थिति आदि पन्द्रह द्वारों से विभिन्न ग्रन्थों के आधार पर निरूपण करते समय लेश्या की अनेक विशेषताएँ प्रकट हुई हैं। इस विवेचन से यह भी ज्ञात होता है कि सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों में जहाँ प्रथम तीन लेश्याएँ होती हैं वहाँ गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य में छहों लेश्याएँ पाई जाती हैं। भवनपति एवं वाणव्यन्तर देवों में प्रथम चार लेश्याएँ होती हैं। ज्योतिषी देवों में मात्र तेजोलेश्या होती है। जबकि वैमानिक देवों में कहीं मात्र तेजो, कहीं पद्म और कहीं मात्र शुक्ल लेश्या होती है। लेश्या एक प्रकार से व्यक्ति के व्यवहार की नियामक होती है। ६. जीव भिन्न-भिन्न दिशाओं से पुद्गलों का आहार ग्रहण करते हैं। वे पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व और अधो इन छह दिशाओं से आहार ग्रहण करते हैं, किन्तु व्याघात होने पर ये तीन, चार अथवा पाँच दिशाओं से भी आहार ग्रहण करते हैं। १०.जीव की अस्थियों के संयोजन पर भी जैन दर्शन विचार करता है तथा इस अस्थि संयोजन को संहनन कहा गया है। वज्रऋषभनाराच आदि छह संहननों में से किस जीव में कौनसा संहनन उपलब्ध होता है, यह निरूपण जीवों की शारीरिक संरचना पर प्रकाश डालता है। यह भी कहा गया है कि सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, देव और नारक जीवों में संहनन नहीं होता है क्योंकि इनमें अस्थियों का अभाव है। कहीं एकेन्द्रिय जीवों में सेवार्त्त संहनन होने का भी उल्लेख प्राप्त होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो संहनन का सम्बन्ध औदारिक शरीर से है, वैक्रिय शरीर से नहीं। ११. जैन दर्शन में कषाय के मुख्यतः चार प्रकार हैं- क्रोध, मान, माया और लोभ। फिर इनमें प्रत्येक की चार-चार श्रेणियाँ हैं- अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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