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________________ 156 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन निम्नांकित निष्कर्ष कहे जा सकते हैं १. जीवों का जैन दर्शन में अत्यन्त सूक्ष्म विवेचन हुआ है। लोकप्रकाशकार विनयविजय ने आगमों एवं अन्य प्रामाणिक ग्रन्थों के आधार पर विभिन्न द्वारों से जो विवेचन किया है वह अत्यन्त सारगर्भित एवं व्यवस्थित रीति से किया है। २. अवगाहन आदि दस द्वारों के विवेचन में उपाध्याय विनयविजय ने स्थानांग सूत्र, प्रज्ञापना सूत्र, जीवाजीवाभिगम सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र, व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र, तत्त्वार्थराजवार्तिक, सर्वार्थसिद्धि, षट्खण्डागम पर धवला टीका, पंचसंग्रह, तत्त्वार्थसूत्र पर सिद्धसेन गणि विरचित टीका, कषायपाहुड, तिलोयपण्णत्ति आदि अनेक ग्रन्थों को आधार बनाया है। ३. संसारी जीवों के अज्ञान से आच्छन्न होने, चार गतियों में भ्रमण करने, राग-द्वेष से युक्त होने आदि का विवेचन तो अन्य सांख्य, योग, वेदान्त, न्याय, बौद्ध आदि दर्शनों में भी प्राप्त होता है किन्तु जीव की जिन अवस्थाओं का वर्णन जैन ग्रन्थों में हुआ हैं वे अपने आप में विशिष्ट है। यह अवश्य है कि इनकी प्रामाणिकता आगमों के अधीन है। चर्म चक्षुओं के आधार पर देखने वाले, सीमित बुद्धि एवं तर्क से समझने वालों की अपनी सीमाएँ हैं । उनके लिए सत्य का बहुत सा अंश अनुद्घाटित ही रहता है। अतः जैन दर्शन में प्रतिपादित इन विभिन्न विशेषताओं में कोई बुद्धिगम्य हैं तथा कोई श्रद्धा की विषय हैं। ४. पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रिय जीवों, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीवों के पर्याप्त-अपर्याप्त आदि भेदों को आधार बनाकर उनके औदारिक अथवा वैक्रिय शरीर की अवगाहना अर्थात् शरीर की आकार अथवा अंग प्रमाण का विवेचन साधारण जनों को आश्चर्यचकित करने वाला है। अवगाहना से तात्पर्य है वह जीव आकाश के कितने प्रदेशों को अवगाहित करके रहता है। दूसरे शब्दों में उस जीव का स्थूल शरीर कितने आकार का है। इस सम्बन्ध में अवगाहना का दो प्रकार से निरूपण किया गया है- जघन्य एवं उत्कृष्ट । न्यूनतम अवगाहना को जघन्य अवगाहना और उत्कृष्ट अवगाहना को अधिकतम अवगाहना कह सकते हैं। इस दृष्टि से सभी जीवों की जघन्य अवगाहना अंगुल का असंख्यातवां भाग है तथा उत्कृष्ट अवगाहना किसी जीव की अंगुल का असंख्यातवां भाग निरूपित है तो किसी जीव की एक हजार योजन, किसी की पाँच सौ धनुष है एवं कृत्रिम वैक्रिय शरीर धारण करने पर देवों की अवगाहना एक लाख योजन से कुछ अधिक भी कही गई है। ५. समुद्घात जैन दर्शन का पारिभाषिक शब्द है। जो वेदना, कषाय, मारणान्तिक, वैक्रिय,
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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