SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 183
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 154 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन ___इसी तरह जब स्व का आश्रय लेकर मान, माया, लोभ हो तो वह आत्मप्रतिष्ठित; पर को आश्रित बना कर मान, माया, लोभ किया जाए तो वह परप्रतिष्ठित; स्व और पर दोनों का विषय बनाकर मान, माया, लोभ करे तो वह उभयप्रतिष्ठित एवं जब मान-माया-लोभ वेदनीय कर्मोदय से स्वतः कषाय उत्पन्न होता है तब वह अप्रतिष्ठित कषाय कहलाता है। नौ नोकषाय का स्वरूप नञ् समास युक्त पद नोकषाय का 'नो' पद निषेधार्थक न होकर ईषत् अर्थ का द्योतक है। यदि ईषत् अर्थ का ग्रहण नहीं हो तो स्त्रीवेदादि नव कषायों की अकषायता का प्रसंग प्राप्त होगा, जो इष्ट नहीं है। अतः यहां ईषत् कषाय को नोकषाय कहा जाता है। स्थिति अनुभाग और उदय की अपेक्षा कषायों से नोकषायों की अल्पता होती है। नव नोकषाय इस प्रकार है(1) हास्य- हंसने को हास्य कहते हैं। जिस कर्म स्कन्ध के उदय से जीव के हास्य निमित्तक राग उत्पन्न होता है। उस कर्मस्कन्ध की 'हास्य' संज्ञा है। (2) रति- रमण करने को रति कहते हैं अथवा जिसके द्वारा जीव विषयों में आसक्त होकर रमता है उसे 'रति' कहते हैं। (3) अरति- जिन कर्म-स्कन्धों के उदय से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावों में जीव की अरुचि उत्पन्न होती है, उनकी 'अरति' संज्ञा है। (4) शोक-जिन कर्मस्कन्धों के उदय से जीव को विशाद उत्पन्न होता है, उसकी 'शोक' संज्ञा है। (5) भय- जिन कर्मस्कन्धों से जीव को भय उत्पन्न होता है, उनकी 'भय' संज्ञा है। (6) जुगुप्सा- जिन कमों के उदय से ग्लानि उत्पन्न होती है, उनकी 'जुगुप्सा' संज्ञा है। (7) स्त्रीवेद- जो दोषों के द्वारा अपने आपको और पर को आच्छादित करती है उसे स्त्री कहते हैं। जिन कर्मस्कन्धों के उदय से पुरुष में आकांक्षा उत्पन्न होती है, उनकी 'स्त्रीवेद' संज्ञा है। (8) पुरुषवेद- जो महान् कर्मों में शयन करता है या प्रमत्त होता है, उसे पुरुष कहते हैं। जिन कर्म-स्कन्धों के उदय से स्त्री पर आकांक्षा उत्पन्न होती है, उनकी 'पुरुषवेद' संज्ञा है। (9) नपुंसकवेद-जो न पुरुषरूप हो और न स्त्रीरूप हो, उसे नपुंसक कहते हैं। जिन कर्मस्कन्धों के उदय से ईंटों के अवा की अग्नि के समान स्त्री और पुरुष इन दोनों पर आकांक्षा उत्पन्न होती है, उनकी 'नपुंसकवेद' संज्ञा है। क्रोधादि कषायों के शक्ति, लेश्या और आयुबन्धाबन्धगत भेदों से क्रमशः चार, चौदह और बीस स्थान होते हैं अर्थात् क्रोधादि की शक्ति चार, लेश्या चौदह व आयुबन्धाबन्ध स्थान बीस हैं। शक्ति के स्तर इस प्रकार हैं
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy