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________________ जीव - विवेचन (2) २४६ क्रोध- प्रीति का अभाव, रोष, अमर्ष और संरम्भ क्रोध है। मान - विद्या, तप, जाति आदि का मद मान है। अन्य से ईर्ष्या करना, उसकी अवनति एवं स्व उत्कर्ष चाहना भी मान है। २४७ २४८ माया- अन्य जन की वंचना करना उसे धोखा देना या ठगना माया है। २४६ लोभ- तृष्णाओं का अतिशय होना लोभ है। 151 क्रोधादि चारों कषाय आत्मस्वरूप को कितना आवरित करते हैं, इसके चार स्तर हैंअनन्तानुबन्धी— अनन्त भव के संस्कारों को या मिथ्यात्व को बाँधने वाला क्रोधादि कषाय अनन्तानुबंधी कषाय होता है। यह कषाय जीव को अनन्त जन्मों के साथ जोड़ता है। अतः लोकप्रकाशकार इसे संयोजन कषाय भी कहते हैं संयोजयन्ति यन्नरमनन्तसंख्यैर्भवैः कषायास्ते । संयोजनतानन्तानुबन्धिता वाप्यतस्तेषाम् ।। २५० क्रोधादि स्वरूप या अनन्तानुबंधी कषाय सम्यक्त्व का घात करता है अर्थात् उसे प्रकट नहीं होने देता। अप्रत्याख्यानावरण- • अणुव्रतों का घात करने वाला क्रोधादि कषाय अप्रत्याख्यानावरण कहलाता है। अर्थात् यह कषाय जीव के श्रावकत्व अर्थात् देशविरति प्राप्त करने में बाधा उत्पन्न करता है। विशेषावश्यक भाष्य में कहा भी गया है देशविरतिगुणस्याऽवरकत्वाद् ते कषायाः अप्रत्याख्यानावरणकषायाः।” इस कषाय में अल्प अंश भी प्रत्याख्यान नहीं हो सकते हैं अतः इसे अप्रत्याख्यावरण कषाय कहते हैं। यहाँ नञ् समास सर्वथा निषेध अर्थ में प्रयुक्त हुआ है २५२ तत्र नञ् सर्वनिषेध उक्तः यह अर्थ लोकप्रकाशकार सम्मत भी है । यथा नाल्पमप्युल्लसेदेषां प्रत्याख्यानमिहोदयात् । २५३ अप्रत्याख्यानसंज्ञातो द्वितीयेषु नियोजिता ।। प्रत्याख्यानावरण- सकल चारित्ररूप महाव्रत परिणामों का घात करने वाले क्रोधादि कषाय प्रत्याख्यानावरण कषाय होते हैं। अर्थात् ये कषाय पूर्ण संयम प्राप्ति में बाधा उत्पन्न करते हैं। ये कषाय सावद्य सर्वविरति स्वरूप प्रत्याख्यानों को करने से रोकते हैं अतः इस कषाय का नाम प्रत्याख्यानावरण रखा गया है। २५४
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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