________________
146
लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन सिद्धसेनगणी (विक्रम की 7-8वीं शताब्दी) का मत-'अर्द्धवजर्षभनाराच नाम तु वज्रर्षभनाराचनामर्ध किल सर्वेषां वजस्यार्ध ऋषभस्याध नाराचस्यामिति भाष्यकारमतम् । कर्मप्रकृतिग्रन्थेषु वज्रनाराचनामैवं पट्टहीनं पठितं किमत्र तत्त्वमिति सम्पूर्णानुयोगधारिणः कंचित् संविद्रते । अर्धग्रहणाद् वा ऋषभहीनं व्याख्येयम् ।
___अर्थात् अर्द्धवज्रऋषभनाराच का तात्पर्य है वज्र, ऋषभ और नाराच का अर्ध भाग। वज्र का अर्थ, ऋषभ का अर्ध और नाराच का अर्ध भाग होने पर उस संहनन को अर्द्धवज्रऋषभनाराचसंहनन कहा जाता है। जबकि कर्मप्रकृति ग्रन्थों के अनुसार पट्टहीन तथा वज्र एवं नाराच से युक्त संहनन को अर्द्धवज्रऋषभनाराच संहनन कहा गया है। यहाँ अर्ध शब्द ऋषभ अर्थात् पट्ट से हीन के लिए आया है। २०० भट्ट अकलंक का मत- तदेव वलयबन्धनविरहितं वजनाराचसंहननम्' अर्थात् वज्रऋषभनाराच संहनन ही जब वलयबन्धन से रहित होता है तब उसे वज्रनाराच संहनन कहते
वीरसेनाचार्य का मत- 'एसो चेव हड्डबंधो वज्जरिसहवज्जिओ जस्स कम्मस्स उदएण होदि तं कम्मं वज्जणारायणसरीरसंघडणमिदि भण्णदे । २०२
अर्थात् पूर्वोक्त वज्रऋषभवज्रनाराच अस्थिबन्ध ही जिस कर्म के उदय से वऋषभ से रहित होता है वह कर्म 'वज्रनाराचशरीर संहनन' नाम से कहा जाता है। देवेन्द्रसूरि का मत- देवेन्द्रसूरि के मत का विवेचन करते हुए पं. सुखलाल संघवी कहते हैं कि दोनों तरफ हाड़ो का मर्कट बन्ध हो, तीसरे हाड़ का बैंठन भी हो लेकिन तीनों को भेदने वाला हाड़ का खीला न हो, तो वह ऋषभनाराच संहनन है।
इन विभिन्न मतों से यह निष्कर्ष निकलता है कि दूसरे संहनन के नाम के साथ-साथ लक्षणों में भी विद्वानों का पर्याप्त मतभेद है। आचार्य सिद्धसेन गणि वज्र, ऋषभ व नाराच का अर्ध भाग स्वीकार करते हैं। अतः संहनन का नाम 'अर्द्धवज्रऋषभनाराच संहनन' करते हैं। कर्मप्रकृतिकार इसको पट्ट से रहित एवं वज्र व नाराच से युक्त शरीर संहनन कहते हैं। भट्ट अकलंक और वीरसेनाचार्य वलयबंधन से रहित वज्रनाराच अर्थ करते हैं। उपाध्याय विनयविजय इसे वज्र कील से रहित ऋषभनाराचशरीर संहनन मानते हैं। कहा भी है
अन्यदृषभनाराचं कीलिकारहितं हि तत्।
केचित्तु वज्रनाराचं पट्टोज्झितमिदं जगुः । । २० नाराच संहनन
अस्थनोर्मर्कटबन्धेन केवलेन दृढीकृतम्।