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________________ 141 जीव-विवेचन (2) | ४ | प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकाय प्रथम चार लेश्याएँ | विकलेन्द्रिय, सम्मूर्छिम तिर्यंच पंचेन्द्रिय एवं | कृष्ण, नील, कापोत तीन लेश्या। सम्मूर्छिम मनुष्य तथा नारकी गर्भज तिर्यच पंचेन्द्रिय एवं गर्भज मनुष्य छहों लेश्याएँ भवनपति एवं वाणव्यन्तर देव प्रथम चार लेश्या | ज्योतिषी देव, सौधर्म एवं ईशान देवलोक के । मात्र तेजोलेश्या us| देव |६ | सनत्, माहेन्द्र एवं ब्रह्म देवलोक के देव पद्म लेश्या | १० | छठे देवलोक के अनुत्तरविमान पर्यन्त शुक्ल लेश्या लेश्या एवं आभामण्डल तेज, दीप्ति, ज्योति, किरणमण्डल, ज्वाला आदि शब्दों का अभिधायक शब्द लेश्या यहाँ आभामण्डल अर्थ को द्योतित करता है। जैनदर्शन में आभामण्डल की चर्चा लेश्या के संदर्भ में सूक्ष्म शरीर के साथ की जाती है। आभामण्डल रंगों की भाषा द्वारा पहचाना जाता है, क्योंकि सूक्ष्म शरीर से निकलने वाली विकिरणे रंगीन होती हैं, इन्हीं रंगों के माध्यम से आभामण्डल की गुणात्मकता तथा प्रभावकता जानी जाती है। भावलेश्या प्रतिक्षण बदलती रहती है, इसीलिए आभामण्डल भी बदलता रहता है। जैन दर्शन लेश्या की व्याख्या में कहता है कि कृष्ण, नील और कापोत रंग प्रधान ओरा मनुष्य की दूषित मनोवृत्तियों को दर्शाता है। तेज, पद्म और शुक्ल लेश्या के रंग-प्रधान आभामण्डल मनुष्य की अच्छी मनोवृत्ति को दर्शाता है। इस संदर्भ में फेबर, बिरेन, लीडबीटर और ऑडरे कारगेरे आदि आधुनिक मनोवैज्ञानिकों ने भी आभामण्डल के साथ जुड़े व्यक्तित्व का रंगों के साथ विश्लेषण करने का प्रशंसनीय प्रयास किया है। डॉ. शान्ता जैन ने 'लेश्या और मनोविज्ञान' नामक पुस्तक के पृष्ठ १२१ पर ऑडरे कारगेरे के वक्तव्य को उद्धृत किया है कि ओरा में होने वाला रंग मित्रता, प्रेम, स्वस्थता और शक्ति का, सुनहरा पीला उच्च प्रज्ञा का, नीला आध्यात्मिक और धार्मिक मनोवृत्ति का, नारंगी बुद्धि और न्याय का, हरा सहानुभूति, परोपकारिता, दयालुता का प्रतीक होता है। इसी तरह आभामण्डल में उभरने वाला स्लेटी रंग भय और ईर्ष्या का, काला अभाव का तथा सफेद रंग आध्यात्मिक पूर्णता का सूचक होता है। जैनदर्शन में लेश्या के आधार पर आभामण्डल के छह प्रकार बन जाते हैं, क्योंकि लेश्या के छह वर्ण निर्धारित हैं और इन्हीं वर्गों के साथ मनुष्य के विचार और भाव बनते हैं, चरित्र निर्मित होता है। वर्ण और भाव परस्पर प्रभावक तत्त्व हैं। वर्ण की विशदता और अविशदता के आधार पर भावों की प्रशस्तता और अप्रशस्तता निर्मित होती है। हम भावधारा को साक्षात् देख नहीं पाते,
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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