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________________ जीव-विवेचन (2) 129 (6) नारक- सामान्यतः नारकी अनन्तर जन्म में सम्यक्त्व, देशविरति, सर्वविरति और मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। नरक से च्यवन कर मनुष्य जन्म प्राप्त करने पर एक समय में दस नारक सिद्ध होते हैं। प्रथम तीन नरकों से च्यवन किए नारकी दस मोक्ष जाते हैं और चौथी नरक से निकलकर पाँच सिद्धि प्राप्त करते हैं। पाँचवें से यावत् सातवें नरक से च्यवन किए मोक्ष नहीं जाते। सत्रहवां द्वार : लेश्या-विमर्श आत्मा का अध्यवसाय या परिणाम विशेष लेश्या जैन दर्शन का पारिभाषिक शब्द है। यह लेश्या शब्द आगम साहित्य में मिलता है, परन्तु इसकी परिभाषा आगम में अनुपलब्ध है। प्राचीन साहित्य में किसी वस्तु का स्वरूप परिभाषा से स्पष्ट न करके उसके भेद-प्रभेद से समझाया जाता था। इसलिए आगम साहित्य में लेश्या को परिभाषित न कर उसके भेदों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। नवांगी टीकाकार आचार्य अभयदेवसूरि ने सर्वप्रथम भगवती सूत्र की टीका में लेश्या को परिभाषित करते हुए कहा- 'कृष्णादिद्रव्यसानिध्यजनितो जीवपरिणामो लेश्या" अर्थात् कृष्ण आदि द्रव्य वर्गणाओं की सन्निधि से होने वाला जीव का परिणाम लेश्या है। आचार्य हरिभद्र, मलयगिरि, नेमिचन्द्र-सिद्धान्तचक्रवर्ती, पंचसंग्रहकार और कर्मग्रन्थकार आदि आचार्यों ने भी लेश्या विषय में अपने विचार अभिव्यक्त किए हैं। वे इस प्रकार हैं१. आवश्यक सूत्र की टीका में आचार्य हरिभद्र कहते हैं कि जो आत्मा को योग और कषाय प्रवृत्ति द्वारा अष्टविध कर्मों से श्लिष्ट करती है वह लेश्या है। २. आचार्य मलयगिरि प्रज्ञापना सूत्र की वृत्ति में लिखते हैं कि स्फटिक मणि में जिस काला, लाल आदि वर्ण का धागा पिरोया जाता है। वह वैसी ही प्रतिभासित होने लगती है उसी प्रकार राग-द्वेष कषाय आदि विविध परिणामों से आत्मा का तत्तत् परिणामों में परिणत हो जाना लेश्या है। ३. स्थानांग सूत्र की टीका में लेश्या को श्लेष की तरह कर्मबंध की स्थिति की विधायिका बताया गया है- “लिश्यते श्लिष्यते कर्मणा संबध्यते जीवो याभिस्ताः लेश्याः-कर्मणा सह सम्बन्धे हेतुभूता आत्मपरिणामविशेषाः।।८ तात्पर्य यह है कि लेश्याओं का कर्म के साथ कार्य-कारणभाव सम्बन्ध है। कर्मों की स्थिति का कारण लेश्या है। जैसे दो पदार्थों का योग करने में एक तीसरे लेसदार द्रव्य की आवश्यकता होती है ठीक वैसे ही आत्मा का कर्मों के साथ बन्ध होता है उसमें श्लेष (सरेस) की तरह लेश्या कार्य करती है। आत्मप्रदेशों के साथ सम्बद्ध होने वाले कर्म पुद्गलों के रस विशेष को अनुभाग कहते हैं और उस रस-विशेष
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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