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________________ 92 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन (6) पुद्गल कृत भेद- औदारिक शरीर स्थूल पुद्गलों से निर्मित होता है एवं अन्य शरीर उत्तरोत्तर सूक्ष्म पुद्गलों के बने होते हैं। ___ संजातं पुद्गलैः स्थूलैर्देहमौदारिकं भवेत् । सूक्ष्मपुद्गलजातानि ततोऽन्यानि यथोत्तरम् ।।" (7) प्रदेशसंख्या कृत भेद- औदारिक से आहारक शरीर उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे प्रदेशों वाले होते हैं और अन्तिम दो शरीर उत्तरोत्तर अनन्तगुणे प्रदेश प्रमाण वाले होते हैं। यथोत्तरं प्रदेशैः स्युःसंख्येयगुणानि च। आतृतीयं ततोऽनन्तगुणे तैजसकार्मणे ।।" (8) चतुर्गतिक कृत भेद- औदारिक शरीर के धारक तिर्यंच और मनुष्य हैं और वैक्रिय शरीर के धारी सामान्य रूप से देव और नारकी जीव होते हैं। लब्धि प्राप्त जीव, वायुकाय, संज्ञी तिर्यंच और मनुष्य को भी वैक्रिय शरीर प्राप्त होता है। आहारकलब्धि प्राप्त छठे गुणस्थानवर्ती प्रमत्त चौदपूर्वधारी मुनियों को आहारक शरीर प्राप्त होता है। तैजस और कार्मण शरीर सर्व संसारी जीवों के होते हैं। (9) स्वामिकृत भेद- एक संसारी जीव अधिकाधिक एक साथ दो, तीन अथवा चार शरीरों का स्वामी हो सकता है। एक साथ पाँचों शरीर और मात्र एक शरीर एक जीव में संभव नहीं है। क्योंकि वैक्रिय और आहारक शरीर एक जीव में एक साथ नहीं होते हैं तथा तैजस और कार्मण दोनों सहचर होते हैं अतः एक जीव में मात्र एक शरीर संभव नहीं है।" तत्त्वार्थ सूत्र और उसकी टीकाओं में स्वामिकृत भेद विस्तृत रूप से चर्चित है। (10) स्थानकृत भेद- औदारिक शरीरधारक जंघा चारण मुनियों की तिरछे लोक में गति रुचक पर्वत पर्यन्त होती है। विद्या चारण और विद्याधर मुनियों की नन्दीश्वर द्वीप तक गति होती है और ऊर्ध्व गति तीनों की पंडक वन तक होती है। वैक्रिय शरीरधारी जीव असंख्यात द्वीप समुद्र तक जाता है। इसी प्रकार आहारक शरीर महाविदेह क्षेत्र तक गति करता है। जीव के जन्मान्तर में साथ होने से तैजस और कार्मण शरीर की गति सर्वलोक में होती है। २५० (11) प्रयोजनकृत भेद- औदारिकादि पाँचों शरीर भिन्न-भिन्न प्रयोजनार्थ कर्म करते हैं। औदारिक शरीर का प्रयोजन धर्म-अधर्म का उपार्जन करना, सुख-दुःख का अनुभव करना, केवलज्ञान प्राप्त करना और मोक्ष पद प्राप्त करना है। वैक्रिय शरीर का प्रयोजन एकत्व, अनेकत्व, सूक्ष्मत्व, स्थूलत्व आकाश गमन आदि करना है।" आहारक शरीर सूक्ष्म शंकाओं का निवारण और जिनेन्द्र ऋद्धि दर्शन का कर्म करता है।६० शाप और अनुग्रह की शक्ति एवं भोजन पचाने की शक्ति तैजस शरीर प्रदान करता है तथा जन्मान्तर ग्रहण करने में गति का कार्य कार्मण शरीर करता है।२६॥
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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