________________
पुरोवा होते हैं, क्योंकि हेय-उपादेय की विवेक शक्ति समनस्क जीवो में होती है।
लोकप्रकाश में क्षेत्रलोक का विस्तृत विवेचन है, किन्तु डॉ. हेमलता ने क्षेत्रलोक का अपने ग्रन्थ में संक्षेप में ही निरूपण किया है, जिससे जैन परम्परा में मान्य खगोल-भूगोल सम्बन्धी ज्ञान का संकेत प्राप्त होता है। आधुनिक विज्ञान के युग में जैन परम्परा में प्रतिपादित लोक का चित्र मेल नहीं खाता है, किन्तु इस विषय में अभी-अभी डॉ. जीवराज जैन ने जैन लोकचित्र को सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के पदार्थों एवं जीवों के प्रतीकात्मक चित्र के रूप में स्वीकार कर एक समाधान प्रस्तुत किया है। उनकी पुस्तक 'लोकाकाश : एक वैज्ञानिक अनुशीलन' सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर से इसी वर्ष प्रकाशित हुई है।
काललोक में उपाध्याय विनयविजय ने यह प्रश्न उठाया है कि क्या काल स्वतंत्र द्रव्य है? उन्होंने काल को स्वतंत्र द्रव्य न मानने एवं मानने दोनों के सम्बन्ध में प्रचलित तर्क उपस्थापित किए हैं तथा अन्त में उसे युक्तियों के द्वारा स्वतंत्र द्रव्य के रूप में प्रतिष्ठित किया है। काललोक पर प्रस्तुत पुस्तक में एक पृथक् अध्याय है, जिसमें समय, आवलिका आदि से लेकर पल्योपम, सागरोपम एवं पुद्गल परावर्तन के स्वरूप की भी चर्चा की गई है।
भावलोक के अन्तर्गत क्षायिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक, औदयिक, पारिणामिक एवं सान्निपातिक इन छह भावों का सारगर्भित एवं व्यापक निरूपण करते हुए उपाध्याय विनयविजय जी ने ज्ञानावरणादि अष्टविध कर्मों तथा मिथ्यात्वादि १४ गुणस्थानों के साथ उनका सम्बन्ध बताया है, जिसकी चर्चा शोधकर्ती ने व्यवस्थित रूप से की है।
प्रस्तुत पुस्तक का वैशिष्ट्य है कि इसमें 'लोकप्रकाश' के अतिरिक्त दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं के मान्य आगमों एवं आगमेतर ग्रन्थों का उपयोग किया गया है। अध्यायों के लेखन में व्यवस्थित निरूपण के साथ यथावश्यक विश्लेषणात्मक एवं तुलनात्मक दृष्टिकोण को अपनाया गया है। अध्यायों के अन्त में सारगर्भित निष्कर्ष दिए गए हैं। पारिभाषिक शब्दों के अर्थों एवं प्रयुक्त चित्रों की सूची पृथक् से दी गई है। आशा है यह पुस्तक जैन आगमों के अध्येताओं एवं विशेषतः लोकप्रकाश के जिज्ञासुओं के लिए उपयोगी सिद्ध होगी।
____ मेरे श्रद्धेय सुहृद् डॉ. जितेन्द्र बी.शाह निदेशक, एल.डी. इन्स्टीट्यूट, अहमदाबाद का मैं हृदय से साधुवाद देता हूँ कि उन्होंने डॉ. हेमलता जैन के शोधग्रन्थ को प्रकाशन योग्य समझा एवं शीघ्र प्रकाशन की समुचित व्यवस्था की।
धर्मचन्द जैन
आचार्य, संस्कृत-विभाग जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर