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________________ लोक-स्वरूप एवं जीव-विवेचन (1) चतुरिन्द्रिय से लेकर एकेन्द्रिय तक के अपर्याप्त जीवों में क्रम से श्रोत्र, चक्षु, घ्राण और रसनेन्द्रिय को छोड़कर छह, पाँच, चार और तीन प्राण होते हैं।८६ चौथा, पांचवां और छठा द्वार : जीवों की योनि, योनिसंख्या एवं कुल संख्या का निरूपण सामान्यतः जीव जिस स्थान पर आकर जन्म ग्रहण करता है उस स्थान को योनि कहते हैं। योनि विषयक चर्चा प्रज्ञापना सूत्र, तत्त्वार्थ राजवार्तिक, सर्वार्थसिद्धि, गोम्मटसार जीवकाण्ड आदि ग्रन्थों में सम्प्राप्त है। लोकप्रकाशकार ने योनि, योनि संख्या एवं कुल संख्या द्वार के अन्तर्गत योनि व कुल के सम्बन्ध में व्यवस्थित एवं विशिष्ट चर्चा की है। उन्होंने स्पर्शपरत्व, चेतनता और आवरण की अपेक्षा से योनियों के तीन भेद कर उसके भेद-प्रभेदों का विभाजन किया है, साथ ही आकृति की विविधता से भी योनि-भेद किये हैं। देवता और नारकी के पांच प्रकार के योनि स्थान, सम्मूर्छिम तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य के सात प्रकार के योनि स्थान और गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय के तीन प्रकार के योनि स्थान बताये गये हैं। योनि से सम्बन्धित कुल का भी यहाँ विवेचन किया गया है। योनि प्ररूपणा .. - 'यू मिश्रणे' धातु से निष्पन्न योनि शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ है- 'यूयते यस्यां इति योनिः' अर्थात् नवीन पर्याय धारण करने वाली आत्मा जिसमें मिश्रण अवस्था को प्राप्त होती है वह योनि है। जैन दर्शन के अनुसार तैजस और कार्मण शरीर वाले जीव औदारिक शरीर के योग्य पुद्गलस्कन्धों के समुदाय के साथ मिश्रित होते हैं, वह स्थान योनि कहलाता है। तदनुसार जीव के जन्म ग्रहण करने के स्थान को भी योनि कहते हैं। ८ तत्त्वार्थसूत्र की टीका में योनि को निम्नलिखित शब्दों से परिभाषित किया गया है- 'योनिरुपपाददेशपुद्गलप्रचयः' अर्थात् उत्पत्ति स्थान के पुद्गल प्रचय रूप योनि है। जन्म ग्रहण तीन प्रकार का होता है- उपपात, गर्भ और सम्मूर्छिम। इनमें से किसी भी प्रकार का जन्म हो सकता है।६० सामान्य रूप से योनियों की संख्या चौरासी लाख मानी जाती है। जैन दर्शन में इसका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।"" व्यक्तिपरत्व से योनि के असंख्यात भेद होते हैं, परन्तु विशिष्ट वर्णादि जाति की अपेक्षा से योनि गिनी जा सकती है। गुण और आकार की दृष्टि से जैन आगमों में इसका वर्णन प्राप्त होता है। गुण दृष्टि से योनि भेद-गुणभेद से योनियों की प्ररूपणा तीन प्रकार से की जा सकती है'६२१. स्पर्शपरत्व की अपेक्षा से- शीत, उष्ण और शीतोष्ण।
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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