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________________ 80 पर जीव के पर्याप्त और अपर्याप्त दो भेद किये गये हैं 1. पर्याप्त - जीव के भेद (अ) लब्धि पर्याप्त- पर्याप्तनामकर्म के उदय से युक्त जीव स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करने के पूर्व नहीं मरता, पर्याप्तियों को पूर्ण करने के पश्चात् ही मरता है, वह लब्धि - पर्याप्त जीव कहलाता है। १६६ लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन (आ) करण पर्याप्त - द्रव्य एवं भाव दोनों रूप से शरीर, इन्द्रिय आदि का निर्वतन होना करण पर्याप्त कहलाता है। 2. अपर्याप्त - जीव के भेद १६८ (अ) लब्धि अपर्याप्त - अपर्याप्त नामकर्मोदय से जो जीव स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूरी किए बिना मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, वह लब्धि अपर्याप्त जीव कहलाता है। इस सम्बन्ध में गोम्मटसार - जीवकाण्ड में विशेष अर्थ किया जाता है कि जीव स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण न करके उच्छ्वास के अठारहवें भाग प्रमाण अन्तर्मुहूर्त में मर जाते हैं, वे लब्ध्यपर्याप्त कहलाते हैं। जो जीव लब्धि-अपर्याप्त होते हैं वे करण पर्याप्त अवश्य होते हैं क्योंकि आहारपर्याप्ति पूर्ण होने के बाद कम से कम शरीर पर्याप्ति बन जाती है और तभी से जीव करण पर्याप्त मान लिया जाता है।"" यह नियम भी है कि लब्धि अपर्याप्त जीव भी कम से कम पूर्व की तीन पर्याप्तियों को पूर्ण किए बिना नहीं मरते। इसका प्रमाण प्रज्ञापना सूत्र में भी दृग्गोचर होता है यस्मादागामिभवायुर्बद्धवा म्रियन्ते सर्वदेहिनः नाबद्धवा । तच्च शरीरेन्द्रियपर्याप्तिभ्यां पर्याप्तानां बन्धमायाति नापर्याप्तानाम् ।। १६७ अर्थात् सभी प्राणी अगले भव की आयु को बाँधकर ही मरते हैं, बिना बाँधे नहीं मरते । आयु तभी बाँधी जा सकती है, जबकि शरीर और इन्द्रिय पर्याप्तियाँ पूर्ण बन चुकी हों। उपाध्याय विनयविजय ने भी इसी बात पर बल देते हुए लोकप्रकाश में उल्लेख किया है कि जो जीव लब्धि अपर्याप्त होता है वह पहली तीन पर्याप्तियाँ पूर्ण करके ही अग्रिम भव की आयु बाँधता है । अन्तर्मुहूर्त तक की आयु का बंध करके लब्ध्यपर्याप्त जीव जघन्य अबाधाकाल (जो अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण का मान गया है) व्यतीत करके गत्यन्तर में जा सकता है, अतः जो अग्रिम आयु को नहीं बाँधता और उसके अबाधाकाल को पूरा नहीं करता, वह मर ही नहीं सकता।' (आ) करण अपर्याप्त - जो जीव आहार शरीर, इन्द्रियादि करण पूर्ण निष्पन्न हुए बिना मृत्यु प्राप्त करते हैं, वे करण अपर्याप्त कहलाते हैं। १७० 999 १७२ दिगम्बर मतावलम्बी करण अपर्याप्त जीव को निर्वृत्यपर्याप्त कहते हैं। इनके मतानुसार
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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