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लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन कहलाते हैं। जैन दार्शनिक सभी स्थावरों को सचेतन स्वीकार करते हैं। जैन आगम ग्रन्थों में इनकी चेतनता के प्रमाण भी प्राप्त होते हैं। आचारांग सूत्र के अनुसार सभी आत्माएँ समान हैं। पृथ्वीकायिक आदि जीव और मनुष्य की आत्मा में केवल उनके ज्ञानावरण आदि कर्मों की तरतमता का ही भेद है। वस्तुतः सभी आत्मा समान है।'३८
भगवती सूत्र में पृथ्वीकायिक जीवों के द्वारा तीन, चार, पाँच और छह दिशाओं से श्वासोच्छ्वास ग्रहण करने का उल्लेख मिलता है
"जे इमे पुढवीकाइया जाव वणफ्फइकाइया-एगिदिया जीवा एएसिंण आणामं वा पाणाम वा उस्सासं वा निस्सासं वा न याणामो न पासामो। एएणं भंते! जीवा आणमंति वा?पाणमंति वा?ऊससंति वा?नीससंति वा?.... हंता गोयमा! एए वि णं जीवा आणमंति वा पाणमंति वा?ऊससंति वा नीससंति वा। एएण भंते! जीवा कइदिसं आणमंति वा?पाणमंति वा?ऊससंति वा?नीससंति वा? गोयमा! निव्वाघाएणं छद्दिसिं, वाघायं पडुच्च सिय तिदिसिं सिय चउदिसिं सिय पंचदिसि । ३६
आचार्य कुन्दकुन्द पंचास्तिकाय में एकेन्द्रिय जीवों का जीवत्व सिद्ध करने के लिए तर्क प्रस्तुत करते हैं कि जिस प्रकार अण्डे में प्रवर्धमान और गर्भ में स्थित जीव तथा सम्मूर्छिम प्राणियों में बुद्धिपूर्वक प्रवृत्ति नहीं देखी जाती है फिर भी उनमें जीवत्व का निश्चय किया जाता है ठीक उसी प्रकार एकेन्द्रिय जीवों का भी जीवत्व सिद्ध होता है, क्योंकि एकेन्द्रिय जीव और अण्डवर्ती पंचेन्द्रिय जीव दोनों में बुद्धिपूर्वक प्रवृत्ति का समान अदर्शन दृष्टिगोचर होता है।"
स्थावरों की चेतनता क्रमशः इस प्रकार हैपृथ्वीकाय-सुई की नोंक के बराबर पृथ्वीकाय के भाग में असंख्य जीव होते हैं।""महावीर स्वामी का यह कथन पहले अन्य मतावलम्बी दार्शनिकों को हास्यास्पद लगता था, क्योंकि उनकी दृष्टि में पृथ्वी अचला, स्पन्दहीन, जड़ व निर्जीव है, परन्तु वैज्ञानिक यंत्रों के विकास ने जैन दर्शन में प्रतिपादित इस सिद्धान्त को सत्य सिद्ध कर दिया है कि पृथ्वी सजीव है।
वैज्ञानिक जूलियस हक्सले ने 'पृथ्वी का पुर्ननिर्माण' लेख में यह तथ्य उद्घाटित किया है कि पैंसिल की नोंक के अग्रभाग जितनी मिट्टी में रहे जीवों की संख्या विश्व के समस्त मनुष्यों की संख्या से कुछ ही कम है और अन्य सजीव प्राणियों के समान मिट्टी का भी जन्म, वर्द्धन व मरण होता है।४२
वैज्ञानिकों द्वारा ५० वंशों की मिट्टी के दस हजार कुलों के खोज की उपलब्धि जैन दर्शन में वर्णित पृथ्वीकाय की योनियों एवं कुल कोटियों की संख्या का समर्थन करती है। जैनदर्शन में पृथ्वीकाय की सात लाख योनि एवं बारह लाख कुल कोटि स्वीकार की गई है।