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पुरोवाक्
आगमवेत्ता उपाध्याय विनयविजय (वि.सं. १६६१-१७३८) विरचित 'लोकप्रकाश' एक विशिष्ट आगमिक ग्रन्थ है। विभिन्न आगमों एवं व्याख्याग्रन्थों के आधार पर ३७ सों तथा १८००० श्लोकों में रचित यह संस्कृत ग्रन्थ जैन धर्म की विविध आगमीय अवधारणाओं को व्यवस्थित रीति से प्रस्तुत करता है। डॉ. हेमलता जैन ने इस ग्रन्थ को आधार बनाकर जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर से पी-एच.डी. उपाधि हेतु सन् २००६ में जो शोधकार्य सम्पन्न किया था, वही अब पुस्तक के रूप में जिज्ञासुओं के कर-कमलों में पहुंच रहा है, इसका मुझे प्रमोद है।
उपाध्याय विनयविजय प्रखर मेधा के धनी थे। वे उत्कृष्ट कवि, वैयाकरण, व्याख्याकार एवं दार्शनिक भी थे। श्वेताम्बर परम्परा के अन्तर्गत १३वीं शती में मुनि जगच्चन्द्रसूरि से प्रारम्भ हुए तपागच्छ में अनेक विद्वान् एवं प्रभावशाली संत हुए हैं। ऐसे संतों में आचार्य हीरविजयसूरि (वि.सं. १५८३-१६५२) का नाम प्रसिद्ध है, जिन्होंने सम्राट अकबर को प्रतिबोध देकर देश मे अहिंसा की विजयपताका फहरायी थी। आचार्य हीरविजयसूरि के पौत्र शिष्य तथा कीर्तिविजयगणी के साक्षात शिष्य के रूप में उपाध्याय विनयविजय ने गुजरात एवं राजस्थान के कुछ भाग को अपनी कर्मस्थली बनाया। उन्होंने जैन परम्परा के यशस्वी सन्त उपाध्याय यशोविजय के साथ वाराणसी में लगभग तीन वर्षों तक न्याय, व्याकरण आदि का गहन अध्ययन किया था। वे दोनों एक ही गुरु परम्परा के प्रभावी सन्त थे। उपाध्याय विनयविजय द्वारा 'श्रीपाल राजानो रास' रचना करते समय उनका रांदेर में देहावसान हो गया तो उस अपूर्ण कृति को उपाध्याय यशोविजय ने ही पूर्ण किया था। उनमें परस्पर अन्तरंग स्नेह एवं आदर का भाव था। 'शान्त सुधारस' की रचना उपाध्याय विनयविजय को आध्यात्मिक कवि के रूप में प्रस्तुत करती है तो 'हैमलघुप्रक्रिया’ उन्हें वैयाकरण के रूप में प्रतिष्ठित करती है, वहीं 'लोकप्रकाश' उन्हें आगममर्मज्ञ दार्शनिक कवि की छवि से शोभित करता है।
'लोकप्रकाश' शब्द से ऐसी प्रतीति होती है कि इसमें सम्भवतः त्रिविध लोकों का विवेचन हुआ होगा, किन्तु यह प्रतीति तब भ्रम में परिवर्तित हो जाती है जब इस ग्रन्थ का अध्ययन किया जाता है। उपाध्याय श्री ने ग्रन्थ में द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक एवं भावलोक के रूप में जैन धर्म-दर्शन की महती विषयवस्तु का समावेश कर लिया है। यद्यपि लोकप्रकाश में तत्त्वमीमांसीय विवेचन प्रमुख रूप से हुआ है, किन्तु प्रसंगवश ज्ञानमीमांसीय एवं आचारमीमांसीय चर्चा भी प्राप्त होती है। अनुयोगों की दृष्टि से विचार किया जाए तो इसमें द्रव्यानुयोग एवं गणितानुयोग की प्रधानता है, किन्तु चरणानुयोग एवं धर्मकथानुयोग भी किसी अंश में गुम्फित है। जैनागमों में विषयवस्तु का