SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 389
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५४ नवतत्त्वसंग्रहः प्रकट तुरंग रंग कूदित विहंग खंग मन थिर भयो जुं निवात दीप जर्यो है ग्यान सार मन धार विमल मति उजार आतम संभार थिर ध्यान जोग को है १ इति 'ग्यान' भावना. अथ 'दर्शन'-भावनासंखा कंखा दूर करी मूढता सकल हरी सम थिर गुन भरी टरी सब मोहनी मिथ्या रंग भयो भंग कुगुर कुसंग फंग सतगुर संग चंग तत्त वात टोहनी निर्वेद सम मान दयाने संवेग ठान आसति करत जान राग द्वेस दोहनी ध्यान केरी तान धरे आतमसरूप भरे भावना समक करे मति सोहनी १ इति. अथ 'चारित्र'-भावनाउपादान नूतन करम कोन करे जीव पुव्व भव संचित दगध करे छारसी सुभका गहन करे ध्यान तो धरम धरे विना ही जतन जैसे चाकर जुहारसी चारतको रूप धार करम पषार डार मार धार मार बूंद गिरे जैसे ठारसी करम कलंक नासे आतमसरूप पासे सत्ताको सरूप भासे जैसे देषे आरसी १ इति. अथ 'वैराग'-भावनाचक्रपति विभो अति हलधर गदाधर मंडलीक रान जाने फूले अतिमानमे रतिपति विभो मति सुखनकू मान अति जगमे सुहाये जैसे वादर विहानमे रंभा अनुहार नार तनमे करे सिंगार षिनक तमासा जैसे वीज आसमानमे पवन झकोर दीप बुझत छिनकमा जिऐसे बुझ गये फिर आये न जिहानमे १ खासा खाना खाते मनमाना सुख चाते ताते जानते न जात दिन रात तान मानमे सुंदर सरूप वने भूषनमे वने वने पोर समेसने अने वच मद मानमे गेह नेह देह संग आस लोभ नार रंग छोरके विहंग जैसे जात आसमानमे पवन झकोर दीप बुझत छिनकमां जिऐसे बुझ गये फिर आये न जिहानमे २ रोयां रीकी घरे परी राषत न एक घरी प्रिया मन सोग करी परीकूने जाइ रे माता हुं विहाल कहै लाल मेरो गयो छोर आसमान माही मेरी पूरी हुं न काइ रे मिल कर चार नर अरथीमे धर कर जगमे दिखाइ कर कूटे सिर माइ रे पीछे ही तमासा तेरो देषेगा जगत सब आपना तमासा आप क्यूं न देषे भाइ रे ? ३ हाथी आथी छोर करी धाम वाम परहरी ना तातां तोर करी घरी न ठराइ रे षान पीन हार यार कोउ नही चले नार आपने कमाये पाप आप साथ जाइ रे सुंदरसी वपु जरी छारनमे छार परी आतम ठगोरी भोरी मरी धोषो पाइ रे पीछेहि तमासा तेरो देषेगा जगत सब आपना तमासा आप क्यूं न देषे भाइ रे ? ४ इति 'भावना' द्वार संपूर्णम्. अथ 'देश' द्वारमाह-कुशीलसंगवर्जन सवईया इकतीसाभामनि पसु ने षंड रहित स्थान चंग विजन कुसील जनसंगत रहतु है द्यूतकार १ हस्तिपार २ सवतिकार ३ नार ४ छातर पवनहार ५ कुट्टिनी सहतु है
SR No.022331
Book TitleNavtattva Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Sanyamkirtivijay
PublisherSamyagyan Pracharak Samiti
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy