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________________ ३२८ नवतत्त्वसंग्रहः तपोधन दान कर सील मीत चीत धर निज गुण वास कर दस धम्म दोरके आतम सियाने माने एह धर्मरूप जाने पाने जाने दोरे भोरे कल मल तोरके १ असी चार लाष जोन षाली तिहां रही कोन वार ही अनंत जंत जिहा नही जाया हैनवे नवे भेस धार रांक ढांक नर नार दूष भूष मूक घूक ऊंच नीच पाया है राजा राना दाना माना सूरवीर धीर छाना अंतकाल रोया सब काल बाज षाया है तो है समजाया अब ओसर पुनीत पाया निज गुन धाया सोइ वीर प्रभु गाया है २ अथ 'बोध(धि)दुर्लभ' भावनासुंदर रसीली नार नाककी वसनहार आप अवतार मार सुंदर दिदार रे इंद चंद धरणिंद माधव नरिंद चंद वसन भूषन षंद पाये बहु वार रे जगतके ष्याल रंगवद रंग लाल माल मुगता उजाल डाल रे(ह)दे बीच हार रे ए तो सब पाये मन माये काम जगतके एक नही पाये विभु वीर वच तार रे १ सुंदर सिंगार करे बार बार मोती भरे पति बिन फीकी नीकी निंदा करे लोक रे वदन रदन सित दृग विन फीके नित पगरि तेरि तकित भूषनके थोक रे जीव विन काया माया दान विन सूम गाया सील विन वायां खाया तोष विन लोक रे तप जप ज्ञान ध्यान मान सनमान सब सम कद रस विन जाने सब फोक रे २ इति द्वादशभावनाविचार. अथ प्रत्याख्यानस्वरूप ठाणांग, आवश्यक, आवश्यकभाष्यात् __ (१) भावि-आचार्य आदिकनी वैयावृत्त्य निमित्ते जो तप आगे करणा था पर्युषण आदिमे अष्टम आदि सो पहिला करे ते 'भावि-अनागत तप.' (२) अईयं-आचार्य आदिकनी वैयावृत्त्य निमित्ते पर्युषण आदिमे अष्टम आदि तप न करे, पर्युषण आदिकके पीछे करे ते 'अतीत तप' कहिये. (३) कोडिसहियं-प्रारंभता अने मूकतां छोडतां चतुर्थ आदिक सरीषो तप ते बेहु छेहडा मेल्या हुइ ते 'कोटिसहितम्.' (४) सागार-अणत्थणा भोग सहसागार इन दोनो विना अपर महत्तरागार आदि आगार राषे ते 'सागारतप.' (५) अणागार-अणत्थणाभोगेण सहसागारेण ए दो विना होर (और) कोइ आगार न राषे ते 'अणागार तप'. (६) परिमाणएक दाता आदि १ कवल २ घर ३ द्रव्य संख्या करे ते 'प्रमाणकृत.' (७) निरविसेसे-सर्व अशन आदि वोसरावे ते 'निर्विशेष.' (८) नियंट्टि-अमुको तप अमुक दिने निश्चे करूगा 'नियंत्रित तप.' ए जिनकल्पी विषे प्रथम संघयण होता है, सो वर्तमानमे व्यवच्छेद (च्छिन्न) है. (९) संकेय-अंगुट्ठि १ मुट्ठि २ गट्ठी ३ घर ४ से ५ ऊसास ६ थियुग ७ जोइरके ८, ए आठ 'संकेत'के भेद जानने. (१०) अद्धा-नमुक्कारसहियं १ पोरसि २ साढपोरसि ३ पुरिम ४ अपार्द्ध ५ विगय ६ निवीता ७ आचाम्ल ८ एकासणा ९ बेआसणा १० एकलठाणा ११ पाण १२ देसा १३ अभत्तट्ठ १४ चरम १५ अभिग्रह १६.
SR No.022331
Book TitleNavtattva Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Sanyamkirtivijay
PublisherSamyagyan Pracharak Samiti
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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