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नवतत्त्वसंग्रहः अथ द्वादशभावनास्वरूप. दोहरापावन भावन मन वसी, सब दुष मेटनहार, श्रवण सुनत सुष होत है, भवजलतारनहार १ अथ 'अनित्य' भावना. सवईया इकतीसासंध्या रंग छिन भंग सजन सनेही संग उडत पतंग रंग चंद रवि संगमे तन कन धन जन अवधि तरंग मन सुपनेकी संपतमे रांक रमे रंगमे देषते ही तोरे भोरे रंक कोरे तोरे भये राजन भिषारी भये हीन दीन नंगमे बादरकी छाया माया देषते विनस जात भोरे चिदानंद भूलो काहेकी तरंगमे ? १ इंद चंद सुरगिंद आनन आनंद चंद नरनको इंद सोहे नीके नीके वेसमे उत्तम उत्तंग सोध जंगमे अभंग जोध घुमत मतंग रंग राजत हमेसमे रंभा तरुषंभा जैसी माननी अनूप ऐसी रसक दसक दिन माने सुष ए समे परले पवन तृण उडत गगन जेसे षवर न काहु वाहु गये काहु देसमे २ अथ 'असरण' भावना(स्व)रूपमात तात दारा भ्रात सजन सनेही जात कोउ नही त्रात भ्रात नीके देष जोयके तन धन जोवन अनंग रंग संग रसे करम भरम बीज गये मूढ वोयके । नाम न निशान थान रान षानलेषि यत दरव गरव भरे जरे नंगे होयके त्राता नही कोउ ऐसे बलवंत जंत संत अंतकाल हाथ मल गये सब रोयके १ साजन सुहाये लाष प्रेमके सदन बीच हसे मोह फसे कसे नीके रंग लसे है माननीके प्रेम लसे फसे धसे कीच वीच मीचके हिंढोले हीच मूढ रंग रसे है चपलासी झमक अनित बाजी जगतकी रुंषनमे वास रात पंषी चह चसे है। मोहकी मरोर भोर ठानत अधिक ओर छोर सब जोर सिर काल वली हसे है २ इति अथ 'संसार' भावनाराजा रंक सुर कंक सुंदर सरूप भंक रति पति रूप भूप कुष्ठ सरवंग है अरी मरी मीत धरी तात मात नारी करी रामा मात षरी करी धूयावरी रंग है उलट पलट नट वट केसो षेल रच्यो मच्यो जगजालमे विहाल वहु रंग है एते माहे तेरो जोरो कोउ नाही नम्र फेरो गेरो चिदानंद मेरो तूही सरवंग है १ रंग चंग सुष मंग राग लाग मोहे सोहे छिनकमे दोहे जोहे मौत ही मरदके नीके वाजे गाजे साजे राजे दरबार ही मे छिनकमे कूकहूक सुनीये दरदके जगमे विहाल लाल फिरत अनादि काल सारमेय थाल जैसे चाटत छरदके मद भरे मरे घरे जंगरमे परे जरे देष तन जरे धरे छरे है गरके २ अथ 'एकत्व' भावनाएक टेक पकर फकर मत मान मन जगत स्वरूप सब मिथ्या अंधकूप है चारों गत भटक पटक सब रूप रंग यति मति सति रति छति एकरूप है